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मदन गुप्ता सपाटू
विवाह था लोयर बाजार के कंसल परिवार में गोपाल जी का। उन दिनों बारात में जाने का क्रेज बच्चों में ही नहीं बल्कि बुजुर्गों में और भी ज्यादा होता था। शहर का हर मुअजिज शख़्स बाराती होता था। शहरदारी पूरी तरह निभाई जाती थी। पंद्रह – बीस दिन पहले सपाटू में हलचल शुरू हो जाती थी। कार्ड बांटने का ज्यादा चलन नहीं था। दूर के रिश्तेदार हल्दी लगे पोस्टकार्ड को निमंत्रण पत्र ही मानते थे। पंडित जी लग्न पत्रिका लिखते थे और वह डाक द्वारा या किसी संबंधी या कभी कभी शहर के नाई के हाथ लड़की वालों के घर भिजवा दी जाती थी। उधर से लड़की वाले भी लगन पत्रिका भिजवाते जिसमें विवाह की तारीख, विवाह का स्थान, फेरों का समय, विदाई का दिन, वर- वधु पक्ष के परिवार जनों के नाम शुद्ध हिन्दी में लिखे होते। तारीख हिन्दी के अंकों में ही लिखी होती। टेलीफोन होते नहीं थे।
सपाटू में शायद सबसे पहला फोन चौक बाजार में लाला हरद्वारी लाल जी की दुकान पर ही देखा था। इस फोन में डायल नहीं होता था। रिसीवर उठाने पर कसौली एक्सचेंज का आपरेटर बोलता था और फिर नंबर मिलाता था। यह फोन सार्वजनिक बन गया था और लाला जी कभी भी किसी का फोन आने पर उसे फौरन बुलवा देते चाहे वह उपरले बाजार का हो या निचले बाजार का। बाजार में निमंत्रण के लिए, खास लोग सुपारी लेकर चलते और जिन्हें बारात में ले जाना होता उससे अनुनय करते। एक सहयोगी कापी पैन लेकर चलता और नाम के आगे लिख लेता कि कितने बाराती जाएंगे। मेरे बाबू जी को कुछ काम था, सो उन्होंनें कह दिया कि मेरी जगह मदन जाएगा।
अपने अपने बिस्तरबंद साथ ले जाना अनिवार्य था क्योंकि बिस्तरों की व्यवस्था उन दिनों ऐसी सुविधाजनक नहीं थी जितनी आजकल है। बारात रात को निकलती ,ठाकुरद्वारे या धर्मशाला में ठहरती और सुबह गंत्वय की ओर चल पड़ती। महिलाएं मंदिर तक ही जाती थी। उन दिनों , विवाह में मैनें किसी बारात में औरतों को जाते नहीं देखा न नाचते देखा। आधी से अधिक महिलाएं घूंघट में ही बारात के पीछे पीछे मंगल गान करते चलती। कहीं कुआं पूजा जाता , कहीं नगर खेड़ा पर माथा टका जाता। मंदिर में पंडित जी विवाह , निर्विघ्न संपन्न हो जाने और यात्रा सकुशल संपन्न होने की आराधना करते और आशीर्वाद भी देते। सुबह सुबह बाजार में शोर मच जाता। आवाजें आने लगती कि अपने अपने बिस्तर दो। तीन चार कुली एक साथ हाजिर। लोगों को घरों से बाहर निकालना और बसों में बिठाना एक मिशन होता था। अंग्रेजी में बोलें तो हरकुलियन टास्क।
बाजार वाले सुबह से अपने अपने घरों में ही ,बाराती की फीलिंग लेने लगते। किसी को नाराज भी नहीं कर सकते, किसी को छोड़ भी नहीं सकते। मोबाइल तो थे नहीं। बस बाजार में आवाजें ही आवाजें आती थी। नाम ले लेकर पुकारा जाता कि चलो भई! बारात लेट हो रही है। पंडित जी के अलावा नगर के मुख्य नाई बाबू राम परदेसी जिन्हें सब प्यार से राजा जी बुलाया करते, लगभग हर बारात का अभिन्न अंग होते। दूल्हे की गुलाबी पगड़ी बांधने में कई लोग एक्सपर्ट थे। उन दिनों बनी बनाई पगड़ी का चलन नहीं था।
सुरिन्द्रा ट्रांस्पोर्ट की दो नई नई 31 सीटर ,बसें आई थी जिनके नंबर थे पी .एन.टी – 1395 दूसरी का 3195 था। इससे पहले हमने वही 21 सीटर बसें देखी थी जिनके इंजन आगे की ओर होते थे और वे 13 नंबर की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हांफने लगती थी या फिर डगरो के पुल से ही पर मोहन बावड़ी पर पानी पिए बगैर आगे नहीं चलती थी। दोनों बसों के एक्सपर्ट र्डईवर। दोनों सरदार जी थे। बड़े खुश मिजाज। बसें रवाना हुईं। नई बसों को हम बिना मुंह की बसें बोलते थे जिनके इंजन अंदर बीच में लगे हुए थे। 62 की बजाय शायद 72 बाराती एडजस्ट थे। कारों की उपलब्धता कम थी।
सपाटू में एक मात्र सलेटी रंग की जीप डाक्टर खान की थी। पहला पड़ाव कालका। दोनों र्डईवर अपने सुरिन्द्रा र्टंस्पोर्ट के मालिकों को कुछ बताने चले गए। दूसरा पड़ाव रहा…. चंडीगढ़ का 22 सैक्टर। किरन सिनेमा के सामने हरी घास का लॉन। सामने अन्नपूर्णा होटल। कोई रश नहीं। कोई टर््ैफिक नहीं। हर वक्त पहाड़ के टीन से ढंके, छतों वाले घरों और दूकानों के आगे ये खूबसूरत नए नमूने की बिल्डिंगें सब को आश्चर्यचकित कर रही थी। अन्नपूर्णा होटल में सबने खाया खाना और लुधियाना के लिए रवाना। रास्ते में एक जगह खेतों के पास बस रुकी ताकि सब हल्के हो लें। बस ! एक बार जो बस रुकी तो सारे बाराती तितर बितर। उन्हें दोबारा बसों में बिठाना एक मिशन था।
नाम ले लेकर कन्फर्म करते कि कहीं कोई छूट न जाए। बस आगे बढ़ी तो पता चला कि एक बाराती कम है। कंडक्टर ने पीछे मुड़ कर देखा तो एक लाला जी खेत से निकल कर सड़क पर, एक हाथ से धोती पकड़े दूसरे हाथ से रुकने का इशारा करते भागे चले आ रहे हैं। उनकी धोती तेज हवा में किसी पार्टी के सफेद झंडे की तरह एक तरफ लहरा रही थी और हाथ किसी राजनीतिक पार्टी के नेता के हाथों की तरह अभिवादन स्वीकार करने की मुद्रा में हिल रहे थे। गर्मी से बेहाल कुछ बारातियों ने मजाक में कहा- लाला को यहीं छोड़ जाओ , गन्ने वन्ने चूस लेगा। वापसी में उठा लेंगे। बस को थोड़ा पीछे किया गया। जब लुधियाना के पास पहुंचने लगे तो ड्राईवर रास्ते के लिए थोड़ा क्न्फ्यूज हुए। सीता माता जी के सुपुत्र श्री कृष्णचंद्र जो लुधियाना में जुराबें बनाना सीख चुके थे, और अक्सर सपाटू से लुधियाना आया जाया करते थे,उन्हें फ्रंट सीट पर मार्ग दर्शन के लिए बैठा दिया गया।
कृष्णचंद्र बोल नहीं पाते थे, परंतु कुशाग्र बुद्धि होने से इशारों में वे बातें चुटकियों में ऐसे समझा देते थे जो एक अच्छा भला आदमी नहीं समझा सकता था। पूरे रास्ते में टर््ैफिक नाममात्र ही था। कहीं कहीं गडड्े या बैलगाड़ियां दिख रही थी। टर््ैक्टर कहीं नहीं दिखे। सीधी सड़क और सड़क के दोनों ओर पकी हुई कनक के सुनहरे खेत तेजी से पीछे दौड़ रहे थे। बैसाखी पर इन्हें कट जाना था। सपाटू में तो गुलाबी मौसम था पर यहां गर्मी हो गई थी। रास्ते में पानी नहीं मिल रहा था। सब लुधियाना जल्दी पहुंचना चाहते थे। जब शहर में एंटर कर गए तो वहां बारात रिसीव करने के लिए कोई आया ही नहीं। सपाटू में जब बारात आती थी तो एक आदमी रेस्ट हाउस के पास होता था या 3 नंबर बैरेक या कुछ दूरी पर खड़ा रहता जहां आज का वीर योद्धा द्वार या फिर 13 नंबर बैरेक पर दूर से इशारा करने के लिए। आधा शहर बैंड बाजे वालों के साथ खड़ा होता। बस आते ही बाजा बजना शुरू और बस धीरे धीरे धर्मशाला तक गाजे बाजे के साथ चलती।
अब सपाटू का यही रिवाज आड़े आ गया।सभी की अपेक्षा थी कि लड़की वाले रिसीव करने आएंगे। बैंड आगे होगा बस पीछे पीछे चलेगी। लुधियाना के तंग बाजार में भी दोेनों बसें पहुंच गई पर लड़की वालों का कोई नामों निशां नहीं ! एक भी आदमी अगवानी के लिए आगे नहीं आया। बस आधा घ्ांटा रुकी रही। बस के अंदर ,लोकल हंसी मजाक चलता रहा। इस बीच चाचा विद्या सागर जी ने चुटकी ली- लाला लग्न पत्रिका तो देख ले ….बारात आज ही लानी थी। दूल्हे के पिताश्री ने सीरियस होकर लग्न पत्रिका निकाली। उसमें हिन्दी के 6 और 9 अंकों में कन्फ्यूजन था। दोनों एक से लगते थे। पत्रिका को आड़े तिरछे रख कर सबने घुमा घुमा के देखा। कोई तारीख को 6 पढ़ रहा था कोई नौ। हिन्दी में 6 लिखें और उसके बीच में एक लाइन लगा दें तो यह 9 बन जाता है। पंडित जी ने कुछ ऐसी खूबसूरती से तारीख का अंक लिखा कि आप खुद ही देख लो। अजिसने 6 पढ़ना 6 पढ़ ले, नही ंतो 9 मान ले।
कुछ कहने लगे – लाला 9 की बजाय तू बारात 6 को ले आया। धीरे धीरे बस खिसकती रही और धर्मशाला की ओर बढ़ती रही। शायद हम साबन बाजार में पहुंच चुके थे। रिश्तेदारों में से दो आदमी लड़की वालों के घर रवाना किये गए। तभी लड़की वालों की ओर से 4- 5 लोग आते दिखे और उनके पीछे पीछे ,धीरे धीरे बस चलती हुई ,एक धर्मशाला के आगे खड़ी हो गई। गर्मी से सबका बुरा हाल था।धर्मशाला को धुलवाया गया जल्दबाजी में इंतजाम करवाया गया। बारातियों को हाथों हाथ लिया गया। सब नहाए धोए। एक बड़े हाल में सबने अपने अपने बिस्तर जमा दिए, नाश्ता किया और बाजार की ओर निकल गए। डिनर का इंतजाम हुआ। सपाटू में खासकर पहाड़ों में विवाह या ऐसे मौकों पर खाना जमीन पर दरी या टाट बिछा कर पत्तलों पर परोसा जाता था। सबसे पहले पत्तलों पर 4 – 4 लडडू रखे जाते थे। यहां सफेद चादरों से सजे टेबल- चेयर और स्टैंड पर रखी तरह तरह की मिठाईयां देख कर सबको एक बड़े शहर का एहसास हुआ और सफर की थकान फुर्र हो गई।
पहाड़ी खाने में पूरियां, कददू की सब्जी, अरबी की दही वाली सब्जी और रायता होता था या कई जगह देसी घी के मालपूड़े और अनारदाने व तिल की चटनी होती थी। लुधियाना छठे दशक में माडर्न होना शुरू हो गया था। फिर भी बफे सिस्टम शुरू नहीं हुआ था। थालियों की जगह जरुर प्लेटों और कांच के गिलासों ने ले ली थी। दूध कुल्हड़ में ही दिया गया। रात के खाने के बाद आइसक्रीम दी गई जो एक लकड़ी के र्ड्म में हैंडल घुमा घुमा कर बनाई जा रही थी। मैंनें पहली बार यहां आइस क्रीम खाई थी। और बहुत से बाराती थे जिन्होंने इसका स्वाद पहली बार चखा था वरना हमने तो अब तक धर्मपुर वाले एक सज्जन से पत्ते पर ही मलाई बर्फ चाटी थी। बारात दो दिन ठहराने का रिवाज था पर यहां 6 और 9 के चक्कर में 3 दिन सबने और मजे लिए। रात को जंगली फिल्म अधिकांश बारातियों ने एक थियेटर में देखी जो अब बंद हो चुका है। कुछ हमउम्र बच्चे अभिभावकों को बिना बताए पिक्चर देखने चले गए और रात के समय वापसी में रास्ता भूल गए। लौटने पर उनकी खूब खबर ली गई। कुछ लोग अपने अपने दूर पार के रिश्तेदारों को मिलने चले गए। पहले यह एक रिवाज था कि आप जिस नगर में जा रहे हैं और किसी की भी लड़की उस जगह ब्याही है तो मिठाई लेकर जाते थे ,शगुन देके आते थे और उस घर का पानी तक नहीं पीते थे। सपाटू वासियों ने लुधियाना में ,इस धर्म का पालन किया। जो नगरवासी , बाजार में बड़े सीरियस किस्म के लगते थे वे रात के समय , पूरे हाल में हंसी मजाक, ठहाके, लगाते हुए ,एक दूसरे की पोल पटिट्यां खोल रहे थे। एक दूसरे की गोपनीय बातें तक शेयर कर रहे थे।
कोई किसी की बात का बुरा नहीं मना रहा था। नारायण दास पान वाले , जो भूपिन्द्र चौरसिया के पिता जी थे, उन्होंने हंसा हंसा के सबके पेट में दर्द कर दी। श्री विजय सहगल, दैनिक र्ट्ब्यिून के पूर्व संपादक के पिता श्री प्रेम सहगल भी हंसी मजाक में कम नहीं थे और चाचा जी के और बारातों के संस्मरण सब को हंसा रहे थे। सीरियस लुक वाले कशमीरी लाल सुनार भी चुटकलों का पिटारा लेकर बैठे थे। बाबू राम परदेसी जो पेशे से नाई थे और उनके बिना कोई ब्याह , ब्याह नहीं होता था, मनोरंजन के एपीसोड के एपीसोड धारावहिक रुप से चलाते रहे। आज की तरह कोई डी.जे या एंटरटेनमंट प्रोग्राम नहीं होता था। आपस में ही रात के समय जो करियाला टाइप मनोरंजन होता था उसका कोई जवाब नहीं था। फेरों पर तो क्लोज रेलेटिव ही बैठते हैं शेष अपना मनोरंजन रात भर खुद कर लेते थे।
धर्मशाला में नाई, धोबी, जूते पॉलिश वाले और पान सिग्रेट वाले एक क्तार में बैठ कर बारातियों को खास होने की फीलिंग्स दे रहे थे। चाचा विद्या सागर जिनकी सपाटू में करियाना की दूकान भी थी, व्यंग्य बाण चलाते रहे – अबे !वहां लालटेन तक की सिग्रेट खरीद नहीं पाता है और यहां कैंची की फरमाईश कर रहा है। ये दोनों उस वक्त सबसे सस्ती और मंहगी ब्रांड थी। एक को वे कहने लगे- तेरे भी नाई देख के बाल बढ़ गए? एक को उन्होंने कहा- बस एक दिन में ही तेरा पाजामा घिस गया जो प्रैस करवा रहा है! छोटी मोटी फुलझड़ियां या मोटी मोटी आतिशबाजी एक दूसरे पर चलती रहीं। अगले दिन सपाटू वासियों ने लुधियाना में जम कर खरीदारी की। विदाई की घड़ी भी आ गई।
किसी ने हौजरी तो किसी ने हरी सब्जियां तक खरीद कर बोरे के बोरे बस पर लदवा दिए। दूल्हा गोपाल जी एक हैट लगाए, दुल्हन के साथ बस में अगली सीटों पर बैठाए गए थे। जब बिदाई के समय दहेज का पलंग और बक्से रखने की बारी आई तो बस के ऊपर जगह ही नहीं बची। बड़ी मुश्किल से सामान एक दूसरे पर रख कर एजस्ट किया गया। बस दूर से ऐसी लग रही थी मानो एक पिरामिड चल रहा है। एक तंग बाजार में तो बस के उपर रखा बोरा और कुछ सामान बिजली की तारों में फंस ही गया। बड़ी मुश्किल से कुछ लोग बस की छत पर चढ़ कर बोरियां तब तक संभालते रहे जब तक बसें लुधियाना से चंडीगढ़ रोड पर नहीं आ गई। निकलते निकलते शाम के 4 बज गए। चंडीगढ़ पहुंचे तो रात पड़ गई और फिर किरन सिनेमा के सामने तकरीबन आधे से जयादा बाराती हरी घास पर लेट गए और अन्नपूर्णा में डिनर किया। कुछ दूकानों के नियोन साइन रात के समय एक अजीब सा आनंद दे रहे थे। चंडीगढ़ में 27 सैक्टर के नगला से सीधे 22 सैक्टर का एक ही रास्ता था जो सीधे खरड़ चला जाता था। बाकी सैक्टर बाद में बने।
हमारे एक पड़ोसी लाला जी थे जो किरन सिनेमा को करंसी सिनेमा बोलते थे और उनका तकिया कलाम था – केहो जी। सपाटू में सब उनको केहो जी बुलाते थे। रात को बारात सपाटू लौट आई। आज भी पहली बार लुधियाना देखने और आइसक्रीम खाने, जंगली फिल्म देखने की यादें ताजा हैं। आज के माहौल में विवाह समारोह एक मेले की तरह हो गए हैं। पता ही नहीं चलता कौन आया कौन गया। शगुन पकड़ाया, सनैक्स या खाना खाया, या दारु की छबील पर जुट गए और चलते बने। ढोल , डी जे , भंगड़े के शोर में न किसी की आवाज समझ आती है और जाने क्या तूने कही , जाने क्या तूने सुनी जैसी स्थिति हो जाती है।
बाकी तामझाम में शादी में बुलाने वाला बस एक बैग पकड़े शगुन की क्लैक्शन में व्यस्त होता है। फोटो ग्राफर जरुर फोटो खींच लेता है ताकि सनद रहे कि कौन आया कौन नहीं ! दूल्हा दुल्हन की एंटर््ी भी जब होती है तब तक लोग खा पीकर घर होते हैं। पहले बारात धर्मशाला या किसी स्कूल में ठहराई जाती थी। सामूहिक तौर पर एक हाल में इक्टठा होकर हंसी मजाक जो चलता था,अब वह अकेले अकेले कमरे में कटे कटे रहने में कहां। अब तक हजारों शादियां अटैंड की परंतु इस तरह की यादें सपाटू की शादी की कहीं नहीं मिली। आप ही बताएं वैसी मस्ती या मनोरंजन आज की करोड़ों के बजट वाली डेस्टीनेशन मैरिज में कहीं पाया आपने आजकल ?
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