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India News(इंडिया न्यूज), Martand Singh, Election 2024: यूपी की राजनीतिक पार्टियां इस समय लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियों में जुटी हुई हैं। लेकिन घोसी उपचुनाव ने कई धारणाओं को तोड़ते हुए पार्टियों को दौबारा सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक तरफ जहां समाजवादी पार्टी जीत के बाद उत्साहित है वहीं बीजेपी फिर से अपने सहयोगियों का सर्वे करा रही है। लेकिन घोसी उपचुनाव के बाद सबसे ज्यादा चिंता बीएसपी की बढ़ी है। बीएसपी को यूपी में अपने बेस वोट बैंक खोने का डर सता रहा है। घोसी में मायावती की पार्टी का कोई कैंडिडेट भले ही ना खड़ा हो लेकिन चुनाव के नतीजे के बाद जिस तरह इंडिया गठबंधन खासतौर पर समाजवादी पार्टी की तरफ से ये प्रचार किया जा रहा है कि दलितों के वोट उसको मिले हैं उससे बीएसपी की चिंता बढ़ी है। बीएसपी का मानना है कि अगर ये मैसेज अगर फैल गया कि उसका बेस वोट बैंक उससे खिसक रहा है तो 2024 में उसे दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।
वर्ष 2007 के बाद चुनावों में लगातार मात खाती जा रही बसपा के सामने इस समय विकट स्थिति है। लगातार सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लेती आ रही बसपा का यह फार्मूला वर्ष 2022 के चुनाव में भी बुरी तरह से फ्लॉप हो गया। बावजूद इसके कि इस चुनाव में बसपा को एक करोड़ 18 लाख वोट मिले लेकिन सीट बस एक ही जीत पाई। रसड़ा विधानसभा सीट पर केवल बसपा विजयी हुई। प्रदेश में दलित वोटरों की संख्या लगभग तीन करोड़ है। इसमें काफी वोट बसपा को मिलते रहे हैं पर अब यह वोट बैंक भी खिसक रहा है। घोसी के उपचुनाव में यह वोटर बड़ी संख्या में शिफ्ट हुआ। हालांकि इस चुनाव में बसपा ने अपना प्रत्याशी चुनावी मैदान में नहीं उतारा था, पर साथ ही बसपाइयों को वोट न देने या नोटा दबाने की अपील की थी। बड़ी संख्या में दलित वोट बैंक शिफ्ट होने से बसपा के रणनीतिकारों की नींद उड़ गई है।
गौरतलब है कि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को एक करोड़ 93 लाख मिले थे। उस समय पार्टी को 19 सीटें मिली थीं। अब लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर बसपा ने कैडर कैंप शुरू किए हैं तो साफ कहा है कि सर्व समाज पर फोकस करना है। इनमें खास तौर पर आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को भी जोड़ने को कहा गया है। इसके लिए इस वर्ग के पदाधिकारियों के लक्ष्य तय किए जा रहे हैं। गांव चलो अभियान में इस वर्ग के बाहुल्य गांवों में लगातार अभियान चलाने को कहा है।
बीएसपी एक बार फिर अपने सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के तहत सर्व समाज पर फोकस करने का प्लान बनाया है पर पार्टी की सबसे बड़ी चिंता यही है कि दलित वोटर स्थायी रूप से कहीं दूसरे दलों में शिफ्ट न हो जाएं। यही कारण है कि दलितों में लगातार कैंप करने को कहा है। शहर गांव दोनों में ही दलितों के बीच बसपाई लगातार कैंप कर रहे हैं। साथ ही इनके क्षेत्रों में काडर कैंपों का आयोजन लगातार करने को कहा है। हर विधानसभा क्षेत्र में इस बाबत अलग से कार्ययोजना बनाई जा रही है। इसमें युवाओं एवं महिलाओं को जोड़ते हुए नए सदस्य बनाने का लक्ष्य दिया जा रहा है। बूथ कमेटियों पर खास फोकस है।
प्रदेश की सत्ताधारी दल बीजेपी और सहयोगी दल पहले से दलित वोट बैंक में और सेंध लगाने के लिए प्रयास कर रहे हैं।बीजेपी ने ‘लाभार्थियों’ को रियायतों के साथ लुभाने की योजना बनाई है और कमजोर वर्गों को साधने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं का सहारा लिया है। पार्टी ने योजनाओं का प्रचार प्रसार करने के लिए कार्यकर्ताओं को तैनात किया है। सरकारी योजनाओं के जो दलित लाभार्थी का एक बड़ा हिस्सा हैं और उन्होंने 2022 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी का समर्थन किया जिसकी वजह से बहुजन समाज पार्टी का पतन हुआ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा की अगर बात करें तो 403 सदस्यों वाले सदन में बसपा सिर्फ एक सीट पाकर निचले स्तर पर पहुंच गई। बसपा की सबसे बड़ी समस्या दलित मतदाताओं तक पहुंचने के लिए दूसरी पंक्ति का नेतृत्व नहीं होना है। मायावती भले ही समय समय पर बैठकों के माध्यम से अपनी सक्रियता दिखाती है लेकिन आम कार्यकर्ता ना उन तक पहुंच सकता है और ना ही उसकी बातें बीएसपी सुप्रीमो तक पहुंच पाती है। साथ ही उनके भतीजे आकाश आनंद जिनको अब पार्टी की तरफ से प्रमोट किया जा रहा है वो भी पार्टी कार्यकर्ताओं तक पहुंचने के लिए तैयार नहीं हैं। परिणामस्वरूप, बसपा में जमीनी स्तर के कार्यकर्ता अन्य दलों की ओर जा रहे हैं। बीएसपी ने कुछ वर्षों में अत्याचार का सामना कर चुके दलितों के घर जाने की भी जहमत नहीं उठाई। बीजेपी आगामी लोकसभा में स्थिति सुधारने के लिए ओबीसी उप-जातियों और दलितों पर ध्यान केंद्रित कर रही है, वहीं समाजवादी पार्टी की पीडीए रणनीति का लक्ष्य ‘पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक’ है।
समाजवादी पार्टी बसपा के उन दलित नेताओं की मदद से दलित मतदाताओं को अपने पाले में करने की योजना बना रही है जो सपा में शामिल हो गए हैं और इनमें स्वामी प्रसाद मौर्य, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज जैसे नेता शामिल हैं। पार्टी उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार की दलित विरोधी मानसिकता को उजागर करने के लिए दलित उत्पीड़न मामलों का इस्तेमाल कर रही है, उसका केंद्र बिंदु हाथरस रेप की घटना है। दूसरी ओर, कांग्रेस भी दलितों का समर्थन वापस पाने के लिए नसीमुद्दीन सिद्दीकी और नकुल दुबे जैसे बसपा से ‘उधार’ लिए गए नेताओं पर भरोसा कर रही है। वहीं भीम आर्मी को अभी तक कोई चुनावी सफलता भले नहीं मिली हो, लेकिन चंद्रशेखर की बढ़ती लोकप्रियता और राष्ट्रीय लोक दल के साथ दोस्ती लोकसभा चुनाव में अन्य पार्टियों की परेशानी का सबब बना सकती है। ऐसा होने पर बसपा नेताओं के लिए राह का अंत हो सकता है, जिन्होंने अब तक दलित मतदाताओं के बल पर दांव खेला है।
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