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India News (इंडिया न्यूज), Bihar Caste Survey: बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े आ गए, इसकी तीन मोटी बाते हैं, पहली ये कि पिछड़ा और अति पिछड़ा तबका 63 फीसदी है। दूसरी ये कि अगड़ों की तादाद कम हुई है और उनकी आबादी अब 15.5 फीसद है। तीसरी बात ये कि मुसलमानों की संख्या में इजाफा हुआ है और अब वे राज्य की कुल आबादी का 17 फीसदी है। दलितों की आबादी कमोबेश उतनी ही है जितनी मानी जाती रही है, 19 फीसद से थोड़ा अधिक सवाल ये है कि नीतीश कुमार इस जनगणना से क्या हासिल करना चाहते हैं? जिस मकसद से उन्होंने ये काम करवाया, क्या वह पूरा होगा? और इससे महत्वपूर्ण सवाल ये कि बिहार में जातियों की आबादी के ताजा आंकड़े राजनीति में क्या कुछ बना बिगाड़ सकते हैं।
नीतीश कुमार ने कुर्मी कोईरी के नेता के तौर पर अपनी पहचान रखी और राजनीति का आधार उसको ही बनाया, दोनों जातियों को लेकर एक राय ये रही कि कोईरी लगभग साढे छ प्रतिशत और कुर्मी साढे चार से पांच फीसद है, यानी नीतीश कुमार लगभग दस-ग्यारह फीसदी वोट के नेता माने जाते रहे, लेकिन जातीय जनगणना का आंकड़ा कहता है कि बिहार में कुर्मी 2.87 औऱ कोईरी 4.2 प्रतिशत हैं। अगर दोनों जातियों को मिला दें तो यह आबादी सात प्रतिशत के आसपास बनती है, यानी दस-ग्यारह नहीं बल्कि नीतीश कुमार जिस जाति के नेता माने जाते हैं वह सात फीसद है। इसमें भी एक बड़ा खेल बीजेपी ने कर दिया है। उसने कुर्मी से कोईरी को अलग करने के लिए दो नेताओं को खड़ा कर दिया है। एक को बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी है और दूसरे उपेंद्र कुश्वाहा जो नीतीश से बगावत कर बीजेपी की तरफ आए, इन दोनों के चलते कोईरी वोटर प्रदेश के कुर्मी वोटर से अलग होगा।
जातिगत जनगणना का आंकड़ा कहता है कि बिहार में यादव जाति की तादाद उतनी ही है जितनी मानी जाती रही है, चौदह प्रतिशत, लालू यादव और तेजस्वी यादव के साथ सबसे बड़ी समस्या ये बाकी पिछड़ी जातियों की यादव जाति के साथ बनी नहीं और वह यादव विरोध की राजनीति का हिस्सा बनी रही। पहले नीतीश कुमार ने पिछड़ों के अपने साथ लामबंद किया और फिर बीजेपी ने भी। आज भी आरजेडी के साथ चुनौती यही होगी, प्रदेश की कुल आबादी में पिछड़ों औऱ अति पिछड़ों का हिस्सा 63 फीसदी है। अगर इसमें से 14 फीसदी यादव जाति को हटा दें तो 49 फीसद जो आबादी बचती है, वह आरजेडी के साथ कैसे जुड़े यही लालू लालू प्रसाद यादव के लिए यक्ष प्रश्न है।
बिहार में मुस्लिम आबादी में एक फीसद का इजाफा हुआ है और मेरा अपना मानना है कि इसका बड़ा कारण बांगलादेशी घुसपैठियों की तादाद है, बिहार की बंग्लादेश से लगती सीमा से लोगों का आना लगातार जारी रहता है और उनमें से अधिकतर सीमांचल के जिलों में बस जाते हैं या बसा लिए जाते हैं, एक बड़ा गैंग बांग्लादेशियों को बसाने के लिए काम करता है, यही बात बीजेपी के लिए उस इलाके में सबसे बड़ा मुद्दा है। अमित शाह ने सीमांचल में जो रैली की थी उसमें उन्होंने इसी मुद्दे को उठाया था, इस जनगणना से बीजेपी को एक तरह से संकेत दे दिया है कि बिहार में वह बांग्लादेशियों के आने से मुस्लिम आबादी के बढने और हिंदुओं को एकजुट करने का एजेंडा लेकर चलेगी।
बीजेपी के पास बिहार के लिए हिंदुत्व और मोदी के अलावा कोई और पत्ता नहीं है, मगर यह पत्ता काम कर सकता है इस बात की गुंजाइश है, बीजेपी ने अलग अगल नेताओं और दलों को अपने साथ जोड़कर जो समीकरण तैयार किया है, वह मौजूदा जातीय समीकरण के लिहाज से फिट दिख रहा है।
बिहार में दलित वोट चुनावी राजनीति में बड़ी भूमिका निभाता रहा है औऱ तमाम कोशिशों के बाद भी दलित औऱ अति दलित का भेद उस तबके में पैदा नहीं हो सका, जातीय जनगणना के मुताबिक दलितों का आबादी जगजीवन राम, रामसुंदर दास, रामविलास पासवान जैसे नेताओं की राजनीति का आधार प्रदेश का दलित मतदाता का बड़ा वोट बैंक ही रहा। इस वोट बैंक को बीजेपी ने पिछले कुछ चुनावों से साधने में कामयाबी हासिल की है, लेकिन आज की तारीख में चिराग पासवान को तेज तर्रार और दलित स्वाभिमान को बल देनेवाले नौजवान नेता के तौर पर भी देखा जा रहा है। चिराग के साथ दलित वर्ग रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत के चलते तो जुड़ता ही है, उस तबके में सामाजिक तिरस्कारों से पैदा हुई ग्रंथी पर मरहम भी लगता है। इस लिहाज से बिहार में चिराग पासवान के उभरने की संभावना है, चिराग की पार्टी के पास पिछले विधानसभा चुनाव में छ फीसदी वोट था, सीटें भले ना थी. चिराग को एनडीए से जोड़कर बीजेपी ने सधी चाल चली है।
अब सवाल ये उठता है कि नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना को जारी कर क्या हासिल करना चाहा, असलियत ये है कि नीतीश कुमार ने अपने 19 साल के शासन में ऐसा कुछ नहीं किया जिसको एक मॉडल के तौर पर सामने रख सकें, ना तो स्कूल कालेजों की हालत सुधरे, ना राज्य से पलायन रुका और ना ही उद्योग धंधों की जमीन बन पाई। सिर्फ सड़क औऱ बिजली 19 साल का कुल जमा हासिल है, ऐसे में नीतीश की आगे की राजनीति बगैर रणनीति के थी। उनको यही लगा कि सिर्फ जाति ही है जो उनके लिए खेवनहार हो सकती है, मगर नीतीश कुमार को शायद यह पता नहीं है कि उनकी राजनीति अब लगभग चूक चुकी है, फिर भी इस जनगणना की रिपोर्ट के जारी करने का एक संकेत यह भी है कि नीतीश कुमार अपनी राजनीति को बिहार में 2025 से आगे भी देख रहे हैं।
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