India News (इंडिया न्यूज़), Indian Journalism League: टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा, उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है। पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा, यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है। यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय, दोनों पक्षों को खोना ही खोना है!
धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ की इन पंक्तियों को राजनीति के घमासान में बार-बार इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन अब इसे आप पत्रकारिता जगत में भी आज़मा सकते हैं। ये वो दौर है जब पत्रकारिता से बड़ी है ‘पक्षकारिता’। कभी मजबूरी वश और कभी लालच वश पत्रकारों की टोलियां भी सियासी महाभारत का हिस्सा बन चुकी हैं। पत्रकारिता की अपनी मर्यादा टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी है। वो कई मौक़ों पर सिंहासन से बंधे धर्म को ही अपना मूल धर्म मान चुकी है। ये सिंहासन- सिर्फ़ सत्ता पक्ष का ही नहीं है, विपक्ष का भी ‘सिंहासन’ है। ‘सिंहासन’ और ‘सिंहासन इन वेटिंग’ दो तरह की प्रतिबद्धताओं के बीच पत्रकारिता की नियति में बस खोना ही खोना है।
शालीन खेलों में शुमार क्रिकेट की तरह पढ़े-लिखों का पेशा माने जाने वाले ‘पत्रकारिता के पेशे’ में मौजूदा दौर एक नई क़िस्म के ‘आईपीएल’ का है। 20-20 के मुक़ाबलों ने जिस तरह से क्रिकेट का रोमांच भले ही बढ़ा दिया। लेकिन टेस्ट मैच जैसी क्रिकेट साधना और सधे हुए खिलाड़ियों का स्पेस थोड़ा कम ज़रूर कर दिया। इसी तरह मीडिया के कहे-अनकहे इंडियन पत्रकारिता लीग के 20-20 फ़ॉर्मेट ने कई सारे मिथकों को तोड़ा। नए मुहावरे गढ़े और कुछ ऐसा घाल-मेल किया। जिसका असर आने वाले कई वर्षों तक नज़र आएगा। पत्रकारों की टोलियों पर बोलियां दशकों से लगती रही होंगी। लेकिन अब ये ‘खेला’ कुछ और निखर कर सामने आने लगा है।
2023 में ‘ठप्पा मार’ पत्रकारों की बड़ी जमात सामने आई है। क्यों आई है, इसके पीछे का खेल क्या है? ये अलग बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन पत्रकारों को अब आम जनता के बीच भी ऐसे सवालों का सामना कई-कई बार करना पड़ रहा है- ‘किस पार्टी से हैं ?’। जो पत्रकार अब तक संस्थानों से पहचाने जाते थे, उन्हें अब एक नई पहचान मिल रही है। बड़े-बड़े चैनलों के प्राइम टाइम एंकर्स ने इस ‘ठप्पे’ को मज़बूत करने का बीड़ा उठा रखा है। जो लोग इस रेस में पीछे छूट गए हैं, वो भी सोशल मीडिया पर अपने-अपने प्लेटफ़ॉर्म को एक ‘खास’ ठप्पे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर ‘इंडियन पत्रकारिता लीग’ के 20-20 मुक़ाबले और भी ज़्यादा रोमांचक होकर सामने आए हैं। सोशल मीडिया- यू ट्यूब, फ़ेसबुक या ट्वीटर के व्यावसायिक इस्तेमाल ने इस बात को सुनिश्चित किया है कि आप अपने ‘ठप्पे’ से बाहर निकलने की गुस्ताखी नहीं करें। व्यूज़, लाइक और कमेंट की लालसा ने पत्रकारिता के दिग्गज खिलाड़ियों के लिए अपना ‘ख़्याल’ या ‘बवाल’ बदलने की गुंजाइश ख़त्म कर दी है। जो जहां हैं वहीं अपनी पहचान को और पुख़्ता करने की कोशिश में जुटा है। लोकतंत्र को मज़बूत करने के दावों के बीच अपना-अपना ‘तंत्र’ मज़बूत करने की पुरज़ोर कोशिश हो रही है। चाहे-अनचाहे पत्रकारिता और पत्रकार भी एक तरह के ‘कट्टरवाद’ की तरफ़ बढ़ चले हैं।’
गुट-निरपेक्षता’ जैसे वैश्विक मंचों से ग़ायब होकर म्यूज़ियम का हिस्सा बन गई है, ठीक वैसे ही ‘निष्पक्षता’ पत्रकारों के दिमाग़ से ग़ायब हो गई है। ये नये क़िस्म की वैचारिकता है कि निष्पक्ष कोई नहीं होता। व्यक्तियों के साथ-साथ अब संस्थानों की निष्पक्षता भी संशय के दायरे में आ गई है, वो भी इस ‘लीग’ में एक कोना पकड़ चुके हैं। कुछ राजनीतिक पार्टियों ने दो कदम आगे बढ़ पत्रकारिता के ‘ध्रुवीकरण’ को नई धार दे दी। बक़ायदा एंकर्स की लिस्ट जारी कर बहिष्कार का एलान कर दिया। ये और बात है कि 2023 की ये पहली ‘लिस्ट’ कुछ ही दिनों में लोगों के ज़ेहन से उतर गई, उनके भी जिन्होंने इसे जारी किया था। लेकिन इस प्रकरण ने ख़तरे की घंटी ज़रूर बजा दी। राजनीतिक दलों के पास अपने-अपने ‘पक्षकारों’ की लिस्ट होना एक बात है लेकिन उसे सार्वजनिक मंचों पर साझा कर देना और बात।
पत्रकारिता को जो लोग क़रीब से देखते-समझते हैं, उन्होंने ये बख़ूबी महसूस किया है कि निजी फ़ायदों में पत्रकारिता का सांस्थानिक ढांचा कमजोर हुआ है और उसकी साख सवालों के घेरे में आई है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर पत्रकारों के बीच की ‘फाइट’ का रस लेने वाली एक नई जमात सामने आई है। वो पत्रकारों को लड़ाने-भिड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। राजनेताओं की तरह ही पत्रकारों की फ़्री-स्टाइल नूराकुश्ती कई मौक़ों पर हदें लांघ जाती है। आपस में लड़ने-भिड़ने वाली क़ौमों का हश्र दुनिया ने देखा है। पत्रकारों को पहली फ़िक्र अपनी नस्ल, अपने चाल-चरित्र और चेहरे की करनी चाहिए, वरना दूसरे की चाल की नक़ल में अपना चरित्र-हनन भी कराएँगे और चेहरा भी बिगाड़ लेंगे।
इंडियन पत्रकारिता लीग में हाल के दिनों में कई-कई मौक़ों पर पत्रकारों के लिए बेहद असहज हालात बने हैं। बीच डिबेट में उनके निजी व्यक्तित्व को लेकर लांछन लगाए गए हैं। जो पत्रकार चौबीसों घंटे झंडा उठाते रहे हैं, उन्हें भी इन्हीं राजनेताओं ने सार्वजनिक मंचों से अपमानित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा। ऐसे तमाम मौक़ों पर पत्रकारों का कोई ऐसी मुखर आवाज़ नज़र नहीं आई, जिसे इसे पेशे के सम्मान से जोड़ कर देखा जाए। बल्कि एक दूसरे का उपहास उड़ाने, सवाल उठाने और ज़लील करने के इन मौक़ों का दोनों ही पक्षों ने बख़ूबी इस्तेमाल करना ही अपना धर्म समझा।
कोई संदेह नहीं कि 2024 में ऐसे अपमान के कड़वे घूंट के लिए पत्रकार बिरादरी को ख़ुद को ज़्यादा तैयार करना होगा। गुस्ताखी माफ़ लेकिन साहब बस छोटा सा सवाल, क्या वाक़ई किसी को पत्रकारिता के ‘मूल धर्म’ फ़िक्र है। धर्मवीर भारती के अंधा युग की पंक्तियाँ पढ़िए, सुनिए और सोचिए ज़रूर।
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अन्धापन
भय का अन्धापन, ममता का अन्धापन
अधिकारों का अन्धापन जीत गया
जो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया।।।।द्वापर युग बीत गया
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