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India News (इंडिया न्यूज), Shree Krishna: महाभारत एक ऐसा महाकाव्य है, जिसमें धर्म, अधर्म, कर्तव्य और आत्मज्ञान का अद्भुत संगम मिलता है। इस महायुद्ध की सबसे विशेष बात यह थी कि इसमें भाग लेने वाले सभी योद्धा महान थे, लेकिन उनके बीच सबसे अद्वितीय और सर्वशक्तिमान थे भगवान श्रीकृष्ण। हालाँकि वे स्वयं युद्ध में सीधे भाग नहीं लेते, फिर भी उनका योगदान सबसे महत्वपूर्ण था। श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी के रूप में धर्म के पथ पर उनका मार्गदर्शन करते हैं, और कौरवों के खिलाफ विजय प्राप्त करने में मदद करते हैं।
लेकिन महाभारत की कथा में ऐसे कई पात्र थे, जो केवल श्रीकृष्ण को एक महान योद्धा या एक सलाहकार के रूप में नहीं देखते थे। वे जानते थे कि श्रीकृष्ण वास्तव में विष्णु के अवतार थे और उनका धरती पर अवतरण सिर्फ मानवता की रक्षा और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए हुआ था।
महाभारत में सबसे सम्मानित और महान योद्धाओं में भीष्म पितामह का नाम आता है। वे अपने अडिग कर्तव्य, ज्ञान और तप के लिए विख्यात थे। भीष्म जानते थे कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मानव नहीं, बल्कि स्वयं नारायण के अवतार हैं। वे यह भी जानते थे कि जिसकी भी तरफ श्रीकृष्ण जाएंगे, उसे जीत अवश्य मिलेगी। यही कारण था कि भीष्म पितामह, कौरवों की ओर होते हुए भी, श्रीकृष्ण की दिव्यता और उनकी अद्वितीय शक्ति को पहचानते थे।
महर्षि नारद, जो देवताओं के दूत माने जाते हैं, पूरे देवलोक और धरती के रहस्यों से परिचित थे। उन्हें किसी बात से छिपा हुआ नहीं रहता था। वे यह भलीभांति जानते थे कि श्रीकृष्ण केवल एक महान राजनीतिज्ञ और योद्धा नहीं, बल्कि विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। नारद की दृष्टि में, श्रीकृष्ण का प्रत्येक कार्य, उनकी प्रत्येक लीला, दिव्यता का प्रतीक थी।
महाभारत में ऋषि धौम्य को पांडवों के आध्यात्मिक गुरु और मार्गदर्शक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने पांडवों को धर्म का मार्ग दिखाया और उन्हें कठिनाइयों से उबरने के लिए सहारा दिया। ऋषि धौम्य जानते थे कि श्रीकृष्ण केवल एक पराक्रमी राजा और रणनीतिकार नहीं, बल्कि स्वयं भगवान नारायण हैं। वे यह समझते थे कि धर्म की विजय श्रीकृष्ण की कृपा से ही संभव है।
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महर्षि मार्कण्डेय, जो अपनी तपस्या और योग सिद्धियों के लिए विख्यात थे, भी श्रीकृष्ण की लीलाओं से परिचित थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के अनेक रूपों और लीलाओं के माध्यम से उनके भगवान होने का आभास कर लिया था। मार्कण्डेय के दृष्टिकोण से, श्रीकृष्ण की हर एक लीला, चाहे वह गोकुल में गोपियों के साथ हो या कुरुक्षेत्र के युद्ध में, धर्म और सत्य का संदेश देती है।
धृतराष्ट्र के सचिव संजय को महाभारत के युद्ध का पूरा दृश्य उनकी दिव्य दृष्टि से देखने का वरदान प्राप्त था। इस वरदान के कारण ही वे महाभारत के घटनाक्रम को जानने में सक्षम थे। संजय जानते थे कि श्रीकृष्ण केवल एक मानव नहीं, बल्कि ईश्वर का अवतार हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के गीता उपदेश के माध्यम से उनकी आध्यात्मिक और दिव्य शक्ति को महसूस किया।
कौरवों के पिता, राजा धृतराष्ट्र, जो अंधे थे, शारीरिक रूप से युद्ध नहीं देख सकते थे, लेकिन उनके मन और आत्मा में यह स्पष्ट था कि श्रीकृष्ण एक साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि विष्णु के अवतार हैं। हालांकि वे कौरवों के प्रति अपनी मोहबद्धि के कारण सत्य का साथ देने में असमर्थ थे, परंतु वे जानते थे कि धर्म के रक्षक और भगवान स्वयं श्रीकृष्ण ही हैं।
महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों दोनों के गुरु, द्रोणाचार्य, महान धनुर्विद्या के ज्ञाता थे। वे भी इस सत्य से परिचित थे कि श्रीकृष्ण केवल युद्ध में एक कुशल रणनीतिकार नहीं, बल्कि विष्णु के अवतार हैं। गुरु द्रोण का मानना था कि जब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने, तो उस युद्ध में पांडवों की विजय निश्चित थी।
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महाभारत की इस अद्वितीय कथा में भगवान श्रीकृष्ण का योगदान न केवल एक योद्धा और मार्गदर्शक के रूप में था, बल्कि वे धर्म, सत्य और प्रेम के प्रतीक थे। उनका हर कदम और हर उपदेश उनके भगवान होने का प्रमाण था। उन्होंने केवल युद्ध में विजय ही नहीं दिलाई, बल्कि गीता के माध्यम से जीवन के परम सत्य का भी उपदेश दिया, जो आज भी अनंत काल तक मानवता का मार्गदर्शन करता रहेगा।
इस प्रकार, महाभारत के ये सभी महान पुरुष जानते थे कि श्रीकृष्ण केवल एक महापुरुष नहीं, बल्कि स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। उनके बिना धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश संभव नहीं था। महाभारत का यथार्थ यही था कि श्रीकृष्ण के साथ जो भी था, उसकी जीत निश्चित थी।
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