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दाढ़ी तक ली गई नोच, पैरों में रखना पड़ा सम्मान…कैसे थे उस बदनसीब मुग़ल बादशाह के वो किस्से जो ब्रिटेन तक पहुंचे?

PUBLISHED BY: Prachi Jain • LAST UPDATED : October 26, 2024, 2:57 pm IST
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दाढ़ी तक ली गई नोच, पैरों में रखना पड़ा सम्मान…कैसे थे उस बदनसीब मुग़ल बादशाह के वो किस्से जो ब्रिटेन तक पहुंचे?

Bahadur Shah Zafar: बहादुरशाह जफ़र की जिंदगी केवल एक शासक के पतन की कहानी नहीं, बल्कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक दर्दनाक अध्याय है, जिसने पूरे भारत को एक गहरे जख्म के रूप में प्रभावित किया।

India News (इंडिया न्यूज), Bahadur Shah Zafar: 1857 के विद्रोह के दौरान भारत के इतिहास का एक अत्यंत मार्मिक अध्याय सामने आया, जिसमें आखिरी मुग़ल बादशाह, बहादुरशाह जफ़र की कहानी ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। उनकी कहानी केवल एक बादशाह के पतन की नहीं, बल्कि एक सभ्यता के अंत की भी प्रतीक है।

बागियों का लाल किले में प्रवेश

मई 1857 की 11 तारीख को लगभग तीन सौ बागी सिपाही लाल किले में दाखिल हुए। उनके पास न अनाज था, न पैसा, और वे चाहते थे कि बादशाह उनकी सरपरस्ती करें। जफ़र की स्थिति दयनीय थी। उनके पास खुद के लिए भी पर्याप्त संसाधन नहीं थे। अपनी बेबसी में उन्होंने बागियों से कहा, “हमारे पास अस्तबल के घोड़ों का राशन है, चाहो तो ले लो।” बागियों का उत्साह बढ़ चुका था, और वे किसी भी तरह अंग्रेजों से लड़ाई करने को तैयार थे।

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जफ़र की बेबसी और बागियों का जोश

जफ़र की आर्थिक स्थिति बेहद खस्ता हो चुकी थी, और उनकी सेना और संसाधनों की कमी ने उन्हें लाचार कर दिया था। लेकिन बागियों की जिद्द और उनके भरोसे पर बादशाह ने अंग्रेजों से संघर्ष का फैसला कर लिया। दिल्ली के शुरुआती महीनों में बागी सैनिक अंग्रेजी सेना के लिए चुनौती बने रहे, लेकिन राशन और हथियारों की कमी ने अंततः उनके हौसले को तोड़ दिया। सितंबर 1857 तक अंग्रेजी फौज ने पूरी तरह से दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया।

अंतिम संघर्ष और लाल किला छोड़ने का निर्णय

जफ़र ने धीरे-धीरे यह महसूस किया कि अंग्रेजों के सामने लड़ाई असंभव है। 14 सितंबर 1857 को 82 साल के बीमार जफ़र ने नमाज़ का बहाना बनाकर किले से बाहर निकलने का प्रयास किया, लेकिन उनके सिपाहियों ने उन्हें हर बार रोका। आखिरकार, 16 सितंबर की रात, जफ़र ने लाल किले में बादशाह के तौर पर अपनी आखिरी रात गुजारी। 17 सितंबर को वे चंद खिदमतगारों के साथ लाल किले को अलविदा कहकर निजामुद्दीन की दरगाह पहुंचे।

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आत्मसमर्पण और जीवन की जिल्लत

किले से निकलने के बाद, जफ़र ने ब्रिटिश जनरल विलियम होडसन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उनकी अंतिम उम्मीदें तब टूट गईं जब उन्हें यह एहसास हुआ कि अब उनकी जिंदगी का सफर जिल्लत और तन्हाई भरा होगा। लाल किले में जहां उन्होंने सालों तक शासन किया, उसी लाल किले में एक छोटा और गंदा कमरा उनके लिए तैयार किया गया था। एक ब्रिटिश महिला मिसेज कूपलैंड ने उन्हें उस दौरान देखा और उनकी स्थिति का वर्णन किया, “वो व्यक्ति जिसे पहले किसी के सामने बैठना भी बेअदबी समझी जाती थी, अब हुक्का छोड़कर हमें बड़ी बेचारगी से सलाम कर रहा था।”

आखिरी वक्त की बेबसी और वतन से दूर रंगून की निर्वासित जिंदगी

जफ़र की जिंदगी का यह अंतहीन दर्द था कि उन्हें कभी अपने वतन में दो गज ज़मीन तक नसीब नहीं हुई। अंग्रेजों ने उन्हें मुकदमे के बाद रंगून निर्वासित कर दिया। तन्हाई और गुरबत में शायरी ही उनके पास रह गई, और उन्होंने अपने आखिरी दिनों में लिखा:

“कितना बदनसीब है ज़फ़र, दफ्न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।”

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बहादुरशाह जफ़र की जिंदगी केवल एक शासक के पतन की कहानी नहीं, बल्कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का एक दर्दनाक अध्याय है, जिसने पूरे भारत को एक गहरे जख्म के रूप में प्रभावित किया। जफ़र का संघर्ष एक प्रतीक है कि एक व्यक्ति की इच्छाशक्ति और साहस, चाहे कितनी ही चुनौतियाँ क्यों न हों, कभी झुकता नहीं है।

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