India News (इंडिया न्यूज़), Bihar Caste Survey: बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के आकंड़े क्या जारी किए कि सियासत का ‘पैंडोरा बॉक्स’ खुल गया। भानुमति के पिटारे से बिहार में 36% अति पिछड़े, 27% OBC, 19% के आसपास अनुसूचित जाति और 1.68 फीसदी अनुसूचित जनजाति वाले निकले। देश की सियासत और भविष्य के सामने अब 10 बड़े सवाल खड़े हैं।
1- क्या बिहार में जाति जनगणना के आंकड़ों से नीतीश कुमार और लालू यादव को फ़ायदा होगा ?
2- क्या नरेंद्र मोदी से मुक़ाबला करने के लिए नीतीश-लालू ने मास्टरस्ट्रोक चला ?
3- क्या अब बिहार में हिस्सेदारी नए सिरे से तय होने जा रही है ?
4- जाति जनगणना के आंकड़े 2024 में किसका फ़ायदा करेंगे ?
5- क्या बिहार में पिछड़ों के नए सिरे से आरक्षण की मांग ज़ोर पकड़ेगी ?
6- क्या बिहार की सरकारी योजनाओं में अगड़ों के हिस्से पर असर पड़ेगा ?
7- जाति के आंकड़े भविष्य की योजना का आधार तय करेंगे ?
8- क्या दूसरे राज्यों में भी जाति जनगणना की मांग ज़ोर पकड़ेगी ?
9- क्या अब देश में नए सिरे से आरक्षण की मांग ज़ोर पकड़ेगी ?
10- क्या नीतीश ने ‘मंडल 2.0’ की सियासी बुनियाद रख दी है ?
सवालों के जवाब ढूंढने के लिए सियासी इतिहास के गलियारे में चलें, उससे पहले ये समझना ज़रूरी है कि बिहार में जाति जनगणना के आंकड़ों का भूचाल नीतीश और लालू को फ़ायदा पहुंचाएगा या नहीं। नीतीश कुमार ने एक तीर से कई निशाने साधने कि कोशिश की है। नीतीश अब नेशनल पॉलिटिक्स के सेंटर में आ चुके हैं। जाति जनगणना के ज़रिए मुमकिन है कि नीतीश कुमार अपना वोटबैंक एकजुट रख लें। पिछले दिनों नीतीश ख़ुद के बनाए INDIA गठबंधन से दूर होते दिखाई दिए, लेकिन अब पिक्चर क्लियर है।
बिहार के मुख्यमंत्री अति पिछड़ा यानी EBC, गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और महादलित वोट बैंक के चैंपियन बनने का ख़्वाब पाले बैठे हैं। बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि 36.01% EBC, 27.12% OBC और 19.65% दलित हैं, जो कुल मिलाकर 83 से 84 फ़ीसदी के आसपास की आबादी बनाते हैं। ‘सुशासन कुमार’ की सोशल इंजीनियरिंग में ये 84 फ़ीसदी आबादी फ़िट बैठती है।
बेशक अपने पॉलिटिकल मूव की वजह से नीतीश कुमार हिंदी पट्टी के बड़े नेता बन गए हैं। सियासत में 1 और 1 ग्यारह भी बनाते हैं और 1 माइनस 1 ज़ीरो भी कर देता है। बिहार सरकार ने मान लिया है कि करीब 36 फीसदी आबादी अति पिछड़ी है। मतलब ये कि उनकी आर्थिक-सामाजिक दशा पिछड़ी जातियों से भी बुरी है। जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का फलसफ़ा कहता है कि बिहार में अति पिछड़ों और महदलितों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। ऐसा हुआ तो अब तक आरक्षण की मलाई खा रही दबंग जातियों को धक्का लगेगा।
बस यहीं लालू यादव और नीतीश कुमार हिट विकेट हो सकते हैं, क्योंकि ये दोनों नेता ‘सामाजिक न्याय’ के पोस्टर ब्वॉय हैं। बिहार में यादवों की जनसंख्या केवल 14 फ़ीसदी निकली, पर OBC आरक्षण की सारी मलाई ये लोग ही काट रहे थे। यादव वोटबैंक नीतीश और लालू जैसे नेताओं की सियासी बुनियाद तैयार करते हैं। भारत की 25% OBC जातियां 95% आरक्षण का फ़ायदा उठा रही हैं। बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि 63% OBC में 36 परसेंट अति पिछड़े हैं। सामाजिक न्याय का सिद्धांत कहता है कि सबसे पहले अति पिछड़ों का कल्याण किया जाए। लेकिन सवाल ये है कि लालू-नीतीश अति पिछड़ों का कल्याण करने चलेंगे तो क्या अब तक मलाई काट रहे पिछड़े रूठ नहीं जाएंगे ? अब नैतिकता का तक़ाज़ा कहता है कि नौकरी, घर, स्वास्थ्य वगैरह में अति पिछड़ों को प्राथमिकता दी जाए। लेकिन जेडीयू-आरजेडी ने ऐसा किया तो उसके कोर वोटर छिटक सकते हैं, नतीजा 2024 में दोनों पार्टियों को बड़ा नुक़सान।
सियासत में बहुत सी चीज़ें ‘BY DEFAULT’ यानि संयोगवश होती हैं, बिहार में इस बार भारतीय जनता पार्टी के साथ भी ऐसा ही हुआ है। बीजेपी अति पिछड़ों की राजनीति करती है और बिहार के 36 परसेंट अति पिछड़ों पर नज़र है। नीतीश अब एनडीए से अलग हैं, लिहाज़ा वोट बैंक छिटकेगा जिसका फ़ायदा बीजेपी को ही होना है। जितनी जिसकी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा बुलंद हुआ तो सवर्ण असुरक्षित महसूस करेंगे, इसका फ़ायदा भी भारतीय जनता पार्टी को होना है। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाली कहावत इस वक़्त बीजेपी पर फिट बैठती है।
बिहार में संख्याबल के आधार पर आरक्षण को बढ़ाया गया तो ये मांग पूरे देश में उठेगी। जातिगत जनगणना को नए आरक्षण का आधार बनाया गया तो एक बार फिर ‘मंडल’ वाला ‘खेला’ बिहार से होकर देश के बाक़ी राज्यों तक पहुंच सकता है। साल 1989 की बात है- मुलायम सिंह यादव पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने। केंद्र में जनता दल की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे विश्वनाथ प्रताप सिंह, जिन्होंने 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर दिया। नतीजा OBC जातियों को नौकरियों में 27 फ़ीसदी आरक्षण मिल गया।
आरक्षण की आग देश भर में फैली, सवर्ण सड़क पर उतर आए, आत्मदाह तक की नौबत आ गई। वीपी सिंह के मंडल के जवाब में बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन चलाया, ये वो ज़माना था जब देश की राजनीति ने ‘मंडल’ और ‘कमंडल’ का टकराव देखा। कास्ट पॉलिटिक्स के जन्म की कहानी शुरू तो 1990 से हुई लेकिन पिछले तीन दशक में इसे ख़ूब पकाया गया। यूपी बिहार जैसे राज्यों ने इसी कास्ट पॉलिटिक्स की बदौलत मुलायम, लालू जैसे नेताओं का उभार देखा।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोशल प्लेटफार्म एक्स पर लिखा है, “बिहार की जातिगत जनगणना से पता चला है कि वहां ओबीसी + एससी + एसटी 84% हैं। केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ़ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5% बजट संभालते हैं। इसलिए, भारत के जातिगत आंकड़े जानना ज़रूरी है, जितनी आबादी, उतना हक़ ये हमारा प्रण है।” मतलब साफ़ है कि इसी 84 फ़ीसदी में कांग्रेस को भी वोटबैंक की तलाश है। उधर भारतीय जनता पार्टी ने खामियां गिनानी शुरू कर दी हैं। संजय जायसवाल ने आरोप लगाया है, “नीतीश और लालू ने एक गुनाह किया है कि कुल्हड़िया, शेरशाहबादी जैसी मुस्लिमों की ऊंची जातियों को भी इन्होंने पिछड़ों में लिया है और पिछड़ों के साथ हक़मारी की है।” ख़ैर इंतज़ार कीजिए, अभी ‘पैंडोरा बॉक्स’ खुला है। बाक़ी राज्यों से आवाज़ उठेगी जो दूर तलक जाएगी। इतना तो तय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव की पिच पर जाति का ‘बाउंसर’ ज़रूर आएगा, जो ‘डक’ कर जाएगा वो मार खाएगा और जो ‘शॉट’ लगाएगा वो बाउंड्री के उस पार जाएगा। समझ गए ना, नहीं समझे तो दिनकर को पढ़िए।
“मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का,
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।”
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