अहोई अष्टमी का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
‘अहोई’ शब्द का अर्थ होता है अनहोनी को होनी में बदल देना. ऐसा माना जाता है कि अहोई माता देवी पार्वती का ही एक स्वरूप हैं, जो संतानों की रक्षा करती हैं और मातृत्व सुख का आशीर्वाद देती हैं. यही कारण है कि इस व्रत में स्याहु (साही) के चित्र या आकृति की पूजा की जाती है. यह व्रत दीपावली से कुछ दिन पहले आता है और इसे विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों में बड़े श्रद्धाभाव से मनाया जाता है.
अहोई अष्टमी की पौराणिक कथा
बहुत समय पहले एक साहूकार रहता था. उसके सात बेटे और एक बेटी थी. एक दिन साहूकार की बेटी अपने मायके आई. घर की भाभियां घर को लीपने-पोतने के लिए मिट्टी लेने जंगल जा रही थीं, तो वह भी उनके साथ चली गई. जंगल में जहां वे मिट्टी काट रही थीं, वहीं एक स्याहु (साही) अपने सात बच्चों के साथ रहती थी. मिट्टी काटते समय अनजाने में बेटी की खुरपी स्याहु के एक बच्चे को लग गई और उसकी मृत्यु हो गई. इस घटना से स्याहु क्रोधित हो उठी और बोली कि मैं तुम्हारी कोख बांध दूंगी. यह सुनकर साहूकार की बेटी डर के मारे रोने लगी और अपनी सभी भाभियों से विनती करने लगी कि कोई उसकी जगह यह श्राप ले ले.
सभी भाभियों ने इससे इंकार कर दिया, लेकिन सबसे छोटी भाभी ने ननद को बचाने के लिए खुद उस श्राप को स्वीकार कर लिया. परिणामस्वरूप, उसकी जो भी संतान होती, वह जन्म के सातवें दिन मर जाती. धीरे-धीरे उसकी सात संतानें इस श्राप की भेंट चढ़ गईं. दुखी होकर वह पंडित जी के पास गई और उपाय पूछा. पंडित जी ने उसे सुरही गाय की सेवा करने की सलाह दी. उसने पूरे मन से गाय की सेवा की और एक दिन सुरही गाय उसे स्याहु के पास ले गई. वह छोटी भाभी स्याहु की सेवा में लग गई. स्याहु उसकी भक्ति और समर्पण से प्रसन्न हो गई और उसे श्राप से मुक्ति देते हुए आशीर्वाद दिया कि तुझे सात पुत्र और सात बहुओं का सुख प्राप्त हो.
पूजा-विधि और व्रत की परंपरा
- प्रातः स्नान के बाद अहोई माता का संकल्प लिया जाता है.
- दीवार पर स्याहु (साही) का चित्र बनाया जाता है या लकड़ी/कपड़े की तस्वीर लगाई जाती है.
- तांबे या पीतल के पात्र में जल भरकर रखा जाता है.
- पूरे दिन निर्जला उपवास रखने के बाद शाम को तारे को अर्घ्य दिया जाता है.
- इसके बाद अहोई माता की कथा सुनकर पूजा और आरती की जाती है.
- पारण के बाद फलाहार या अन्न ग्रहण किया जाता है.