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डॉ. अर्चिका दीदी
क ठिन परिस्थतियों में धैर्य, सहजता, सकारात्मक भाव और रचनात्मक सोच बनाये रख पाना अक्सर कठिन हो जाता है। क्योंकि इस दौर में मन अंदर तक झकझोर उठता है। नकारात्मकता अपना प्रभाव जमाने लगता है, आत्म विश्वास गिरने लगता है। विपरीत स्थितियों में अधिक जटिल स्थिति तब आ जाती है, जब हमारे अंदर दूसरों के साथ तुलनात्मक भाव जगता है और अंत:करण में ईर्ष्या-द्वेष भरता है। इससे असंतोष और भी अधिक गहराने लगता है और व्यक्ति अपने जीवन के प्रतिपूर्ण नकारात्मक विछोभ से भर उठता है। मनोविश्लेषक बताते हैं कि ईर्ष्या का बीज व्यक्ति को हर क्षण याद दिलाता रहता है कि वह दूसरों से कम क्षमता वाला है। ऐसा व्यक्ति किसी एक से नहीं, अपितु हर समय हर व्यक्ति से अपनी तुलना करने का आदी हो जाता है। तुलना जितना करता है ईर्ष्या का बीज उतना गहरा होता जाता हैं, जितनी उसमें ईर्ष्या बढ़ती है, वह उतना ही परेशान होता रहता है। यह बेचैनी ही उसके धैर्य, उत्साह, प्रेम-अपनत्व को तोड़ डालता है। इस प्रकार उसकी जीवनी शक्ति सूखने लगती है और व्यक्ति हताश-निराश हो उठता है। अंतत: एक दिन वही चिढ़न उसे अपने जीवन को सजाने-संवारने की एकाग्रता-उल्लास खोने को मजबूर कर देती है।
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ- मरियम लेपार्ड अपनी पुस्तक लाइफ विदाउट जेलेसी में लिखते हैं कि दूसरों की सफलता से ईर्ष्या करना अपनी ही संकीर्णता भरी सोच को बढ़ाना है। वे लिखते हैं हर व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं उसके विकास की सम्भावनायें उसमें अलग-अलग स्तर पर छिपी रहती हैं। यदि व्यक्ति इतना मात्र समझ जाये, तो उसे विक्षुब्धता की जगह सहजता अनुभव होगी। वास्तव में यह कटु सत्य है कि कोई व्यक्ति कभी भी किसी दूसरे की सफलता को नहीं हड़प सकता। न ही किसी कुचक्र के बल पर दूसरों से उसे छीन सकता है। अत: स्वयं के जीवन को सफल बनाने का एक ही अस्त्र है निश्छलतापूर्ण ईमानदारी भरा पुरुषार्थ करना और शीर्ष पर जा बैठना। ईर्ष्या व्यक्ति में कब व किस उम्र में पनप जाय कुछ नहीं कहा जा सकता। अक्सर कई उम्रदराजों को भी दूसरों के बच्चों की सफलता तक देख ईर्ष्या पनपते देखी जाती है। दूसरे के वैभव, वस्तु, प्रगति, लोकप्रतिष्ठा से लेकर हर कुछ किसी व्यक्ति में ईर्ष्या पनपाने का कारण बन सकती है। यही नहीं अक्सर यदि किन्हीं बच्चों के अंदर यह बीज पनप उठता है, तो जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता। पूज्य सद्गुरुदेव श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैंफ्ईष्यार्लु व्यक्ति न अपनी कद्र कर पाता है, न ही परमात्मा द्वारा प्राप्त अपनी योग्यता, किसी वस्तु, साधन, क्षमता, लोकप्रतिष्ठा आदि का। बस जो उसे प्राप्त नहीं है उसी का रोना रात-दिन वह रोता रहता है और अपने भाग्य-कर्म को दोषी ठहराता रहता है। जबकि आवश्यकता है कि उसमें यह अनुभूति जगाने की कि वह परमात्मा का लाडला है, परमात्मा ने उसे विशेष बनाकर भेजा है, अत: उसका स्थान कोई और नहीं ले सकता। बस वह जो प्राप्त है, उसे पर्याप्त मानते हुए उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद देना भर शुरू कर दे। आगे का रास्ता स्वत: खुल जायेगा।
वास्तव में हर व्यक्ति अपने जीवन में किसी न किसी को अवलम्बन बनाता है, जिसके सहारे उसके सुख-दु:ख कटते रहते हैं। इस दृष्टि से व्यक्ति अपनी क्षमता-योग्यता को परमात्मा द्वारा दी गयी अमूल्य निधि माने और उसके न्याय पर विश्वास करे कि परमात्मा सर्वव्यापी है और हर क्षणवह हमारी सहायता करता रहता है। यदि हम उसके प्रति यह विश्वास जगा सकें, तो हर मनुष्य आसानी से कठिन से कठिन परिस्थिति व पीड़ा से सहजता के साथ उबर सकता है। फिर उसे किसी की प्रगति से अपनी तुलना करने का मन नहीं होगा, न ही ईर्ष्या पैदा होगी। इसी प्रकार याद रखें कि नकारात्मक विचार से नकारात्मकता उत्पन्न होती है। ईर्ष्या के कारण अंत:करण में जन्मी नकारात्मकता जीवन को धीरे-धीरे खा जाती है। यह एक बार आती है तो मन में भय भी उत्पन्न होगा और उसे नकारात्मक विचारों द्वारा खाद-पानी मिला, तो वह जिन्दगी को जड़ बनाते हुए और अधिक शक्तिशाली हो जाती है। धीरे-धीरे यही भाव अपना पैर पसारने लगता है और हर छोटी-बढ़ी परिस्थिति हमें डराने लगती है। इसलिए यथासम्भव क्षमता एवं अपनी योग्यता को बढ़ाते हुए प्रगति की भावना जगायें। जीवन की सकारात्मकता से जुड़ें। अच्छी पुस्तकों का अध्ययन, अच्छे लोगों, संतों का सत्संग, ध्यान, श्रेष्ठ आत्म संवाद आदि भ्रमित मन को सकारात्मक दिशा में मोड़ते हैं।
जर्मनी के एक प्रसिद्ध चिंतक मार्क वॉल के अनुसार-शांति-संतोष, प्रसन्नता, सौभाग्य को सराहते हुए जीवन जीना एक कला है, जो हर व्यत्तिफ को सीखनी चाहिए। जिसने यह सीख लिया और अपनी जीवनशैली प्रसन्नता वाली निर्मित कर ली, उसकी जिंदगी आसान, सहज और आशा से पूर्ण हो जाती है। इस तथ्य को हृदयंगम करें। परमात्मा का अपना सर्वाधिक हितैषी अनुभव करते हुए जीवन में मिली हर उपलब्धि के लिए उसे धन्यवाद दें। इससे जीवन में सहज-सुकून अनुभव होगा। खास बात कि कभी-कभी हमें लगता है कि दूसरों का जीवन हमसे आसान है, उन्हें कोई कष्ट नहीं, सबसे ज्यादा तकलीफ में हम ही हैं और यही विचार जीवन में ईर्ष्या को बढ़ावा देते हैं। साथ ही अनुभव होता है कि हम अपनी कठिनाइयों के कारण आगे नहीं बढ़ पाते, जबकि दूसरे बिना किसी कठिनाई के ही आगे बढ़ते जा रहे हैं। यदि हमारे साथ भी कोई सहयोगी होता तो हम भी आगे निकल सकते थे। जबकि ऐसा नहीं है, संघर्ष सभी के जीवन में है। जिसे समाधान निकालना आ गया, वह सुखी दिखता है। अत: हम भी अपनी जटिलताओं को सुधारने व मुस्कुराहट भरी जिन्दगी की आदत डालें। परमात्मा द्वारा जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है के भाव अंत:करण में जगायें। निश्चित ही जीवन खुशहाल होगा।
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