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मां की गर्भ में कैसे मिटते हैं बच्चे के पिछले जन्म के पाप, क्यों बताया गया नर्क से बदतर? गर्भ गीता में जानें सारे जवाब

Prachi Jain • LAST UPDATED : September 14, 2024, 4:17 pm IST

Garbha Geeta: गर्भ गीता यह स्पष्ट करती है कि गर्भावस्था के कष्ट व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम होते हैं। जन्म के बाद भी, यह पथ त्याग और आत्मा की शुद्धता से ही मुक्ति संभव होती है।

India News (इंडिया न्यूज), Garbha Geeta: गर्भ गीता एक अद्वितीय ग्रंथ है, जो महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत स्थित है। यह ग्रंथ भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्धभूमि पर दिए गए उपदेशों का हिस्सा है। गर्भ गीता जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को उजागर करती है और कर्म, धर्म, भक्ति, ज्ञान और मोक्ष के संदर्भ में गहरा मार्गदर्शन प्रदान करती है।

गर्भ गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन और जन्म के रहस्यों पर प्रकाश डाला। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यह प्रश्न किया कि प्राणी गर्भ में क्यों कष्ट भोगता है और जन्म से पहले उसे इतने दर्द क्यों सहने पड़ते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया कि:

कर्मों का प्रभाव:

श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि मनुष्य संसारिक वस्तुओं की कामना करता है, लेकिन ईश्वर की भक्ति पर ध्यान नहीं देता। इस कारण वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फंसता है। श्रीकृष्ण का कहना है कि जो प्राणी काम, क्रोध, मोह और अहंकार से परे होता है, वही सच्ची भक्ति का पात्र बनता है। जो प्राणी इन दोषों से ग्रस्त होता है, उसे पुनः जन्म लेना पड़ता है।

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गर्भ में कष्ट:

श्रीकृष्ण ने गर्भ में होने वाले कष्टों की व्याख्या करते हुए बताया कि एक आत्मा गर्भ में आने के बाद मांस, मज्जा और गंदे खून से घिर जाती है। जब वह गर्भ में छह महीने का होता है, तो दुर्गंध के बीच रहना पड़ता है। इस दौरान आत्मा पूर्व जन्म के कर्मों पर पछताती है और ईश्वर से विनती करती है कि उसे इस नरक से मुक्ति मिले। हालांकि, उसकी प्रार्थनाएँ अनसुनी रह जाती हैं।

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पूर्वजन्म के कर्मों का प्रभाव:

गर्भावस्था के दौरान आत्मा अपने पूर्व जन्म के बुरे कर्मों पर विचार करती है और कष्टों को देख कर पछताती है। लेकिन जन्म की तारीख करीब आते ही, वह अपने पूर्व जन्म की बातों को भूल जाती है और जन्म के बाद उसे इन कष्टों की कोई याद नहीं रहती।

गर्भ गीता यह स्पष्ट करती है कि गर्भावस्था के कष्ट व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम होते हैं। जन्म के बाद भी, यह पथ त्याग और आत्मा की शुद्धता से ही मुक्ति संभव होती है। श्रीकृष्ण ने इस ग्रंथ के माध्यम से यह संदेश दिया है कि भक्ति, धर्म और सच्चे कर्म ही जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का मार्ग हैं।

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