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गीता मनीषी
स्वामी ज्ञानानंद महाराज
मन मानेगा और अवश्य मानेगा। आखिर मन को स्वीकार करना ही है कि कल्याण का यही पथ है, यथार्थ सुख की यही राह है। यही तो वह चाहता है। जन्म-जन्मान्तरों से वास्तव में उसकी एक यही मांग है। लेकिन वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण वह इसकी पूर्ति नहीं कर पाया हैं। अब समय है, मन को सीधी राह पर लाने का। इसे समझाइए, अच्छी प्रकार समझाइए, बार-बार समझाइए, उकताइए नहीं, ऊबिए नहीं। आरंभ में मन अवश्य कुछ आनाकानी करेगा, क्योंकि अनेक जन्मों से इसका विपरीत स्वभाव बन चुका है। अब इस स्वभाव को बदलने, इसे ठीक करने और पुराने संस्कारों की तरह इससे उतारने के लिए आपको पुरुषार्थ करना पड़ेगा। मन के साथ कभी-कभी जूझना भी पड़ेगा। अत्यंत धैर्य से यह सब करते जाइए। कुछ ही समय में आप पायेंगे कि मन आपका आज्ञाकारी सेवक बन रहा है। आपके सम छने का इस पर पर्याप्त प्रभाव पड़ रहा है। अब मन समझने लगा है, मानने लगा है कि नि:सन्देह संसार में लगना उसकी भूल थी- भयंकर भूल!
अब खिलना चाहता है आपके जीवन में
सुंदर-सुगंधित महकता-महकाता एक दिव्य फूल!
मन को अपना आज्ञाकारी सेवक बनाकर रखिए न कि स्वयं को उसके अधीन रखिए। आपसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही मन यहां-वहां के संकल्प-विकल्प करता है। अपने को अलग रखिए, आपकी शक्ति के बिना मन कभी एक क्षण के लिए भी सोचने को समर्थ नहीं है। संकल्प-विकल्पों में मन तभी उलझता है जब आप स्वयं मन के साथ हो जाते हैं। इस अज्ञानता को अभी इसी क्षण दूर कर दीजिए। साक्षी भाव आपको अभ्यास की बुलंदियों की ओर ले जाने में एक-एक अनुपम साधन का काम करेगा। मन के साथ अधिक रस्सा-कस्सी या संघर्ष न कीजिए बल्कि अपने को इसका साक्षी मानकर देखिए कि मन किधर जाता है, किसका चिंतन करता है तथा क्या सोचता है? इसका सूक्ष्म निरीक्षण कीजिए और फिर जहां जहां मन जाए, वहीं-वहीं इसे आत्मा अथवा परमात्मा का दिग्दर्शन कराइए। जिस-जिस प्राणी-पदार्थ का मन चिंतन करता है, उसे मन ने उसी रूप में सत्य एवं सुख रूप मान लिया है। यह इसकी घोर भ्रांति है। यही भ्रांति मन की अशांति, चंचलता एवं अस्थिरता का कारण है और इसे ही दूर करना है।
क्रमश:
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