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सुधांशु जी महाराज
मित्रों! इस दुनिया की समस्या यह है कि यहां के आदमी को लाभ की भाषा ही याद है। वह बिना लाभ के कुछ करना ही नहीं चाहता। उसकी यह चाहत ही उसकी व अन्यों की अनेक समस्याओं की जड़ है। सच तो यह है कि यदि वह इस चाहत से मुक्ति पा जाय, तो उसके कर्म के बदले वास्तव में बहुत-कुछ मिलने लगे। बर्नाड शा से किसी ने पूछा, आपने बहुत सारी पुस्तकें पढ़ी हैं, बुक्स पढ़ी हैं, आपको सबसे ज्यादा लाभ कौन सी बुक से हुआ। उन्होंने व्यापारियों की ही भाषा में जवाब दिया और कहा- अन्य किसी बुक से इतना लाभ नहीं हुआ जितना ‘चेकबुक’ से हुआ। ये भाषा ही अलग है, लाभ वाली भाषा। ऐसे में हर समय आदमी कुछ न कुछ कामना कर रहा होता है, और यदि उसे लाभ न हो तो उसका मन टूटता है। जब समाज की यह स्थिति होगी, तब आप पाएंगे कि लोग उसी आदमी को प्रणाम करेंगे, जिससे उन्हें लाभ होता दिखाई देगा। जिससे कोई स्वार्थ पूरा न होता हो, उसे अभिवादन करना भी पसन्द नहीं करेंगे।
यहां तक कि अगर ऐसा व्यक्ति उन्हें प्रणाम करेगा तो वह उसके प्रणाम का जवाब तक देने को तैयार नहीं होंगे। यदि किसी से स्वार्थसिद्धि की सम्भावना होगी, तो उसे प्रणाम करने के अवसर ढूंढेंगे। वह दूर से निकल रहा होगा, तब भी लम्बे डग चलकर उसे प्रणाम करेंगे और कहेंगे कि बड़े दिनों से मन कर रहा था कि आपके दर्शन हों, देखिए प्रभु की कितनी कृपा है कि आप मिल गये। आपके दर्शन कर वास्तव में मुझे बड़ी खुशी हो रही है, आपसे मिलकर आज का दिन सार्थक हो गया। सवेरे-सवेरे किसी महान पुरुष के दर्शन हो जाएं तो दिन बहुत अच्छा बीतता है, यह उक्ति वास्तव में अच्छी है। लेकिन वो कहां का और कौन सा महान पुरुष है, जिससे मिलकर तुम इतने प्रसन्न हो रहे हो और उसकी प्रशस्ति गा रहे हो? बस इतना ही ना कि उससे कुछ मतलब सिद्ध होने वाला है आपका? ऐसा प्रणाम उचित नहीं है और ऐसी तारीफ भी ठीक नहीं।
कारण, यदि उससे आपका मतलब नहीं सधेगा तो आप उसकी प्रशस्ति गाना व प्रणाम करना तो दूर, उससे मिलना तक नहीं चाहेंगे तथा उससे बचकर निकल जाना चाहेंगे। बन्धुओं! यह आसक्ति का संसार है, इसमें मनुष्य बार-बार द्वंद में फंसता है। महात्मा कबीर ने इसके बारे में ही कहा है – ‘चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में बाकी बचा न कोय।’ इस भ्रम-जंजाल में फंसा हुआ आदमी, इसी में बंधा हुआ है आदमी। जिससे मतलब सिद्ध हो रहा है, उसके आगे-पीछे वह दुम हिलाता घूमता है और मतलब सिद्ध न होता हो तो उसकी तरफ देखना भी पसन्द नहीं करता।
स्थिति और ज्यादा कष्टप्रद एवं दुखद तब हो जाती है, जब यह स्वार्थपरता परिवारों में व रक्त सम्बन्धों में प्रवेश कर जाती है। माता-पिता से बच्चों की कामना पूरी हो रही है तो माता-पिता का सम्मान हो रहा है। जिस दिन माता-पिता ने कमाना छोड़ दिया, मांगने लगे बच्चों से; वहीं से बच्चों की धारा बदल गई, उनके व्यवहार का ढंग बदल गया। अब वे माता-पिता को बेकार की चीज समझने लगे। समाज में तेजी से व्याप रही इस नुकसानदेह भावना को रोकना होगा। यदि हम इसे रोक नहीं पाए तो इससे समाज का बड़ा नुकसान होगा, इस देश की भारी हानि होगी।
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