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कौरवों के पाप जानते हुए भी कर्ण ने क्यों करी थी इनसे दोस्ती…लेकिन अंतिम संस्कार के लिए भी खुद भगवान को आना पड़ा था पृथ्वीलोक?

PUBLISHED BY: Prachi Jain • LAST UPDATED : September 21, 2024, 7:00 pm IST
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कौरवों के पाप जानते हुए भी कर्ण ने क्यों करी थी इनसे दोस्ती…लेकिन अंतिम संस्कार के लिए भी खुद भगवान को आना पड़ा था पृथ्वीलोक?

In Mahabharat Karna Friendship With Kaurava’s: महाभारत की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। दुर्योधन ने कर्ण को अपना मित्र बनाकर न केवल अपनी व्यक्तिगत शक्ति को बढ़ाया, बल्कि कौरवों को एक अत्यधिक कुशल योद्धा भी प्रदान किया

India News (इंडिया न्यूज), In Mahabharat Karna Friendship With Kaurava’s: कर्ण महाभारत का एक महत्वपूर्ण पात्र है, जिसका जीवन संघर्ष और अपमान से भरा हुआ था। कर्ण की जीवन यात्रा का सबसे बड़ा मोड़ वह था, जब दुर्योधन ने उसे अर्जुन का मुकाबला करने के लिए अपने पक्ष में शामिल किया। इस घटना ने न केवल कर्ण के जीवन को बदल दिया, बल्कि महाभारत के युद्ध के परिणाम को भी गहराई से प्रभावित किया।

कर्ण के क्षत्रिय न होने पर उठे सवाल

जब गुरु द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर में एक भव्य प्रतियोगिता आयोजित की, तो उसमें अर्जुन ने अपने धनुर्विद्या कौशल का प्रदर्शन किया। अर्जुन के कौशल को देखकर सभी प्रशंसा कर रहे थे, लेकिन तभी एक अनजान व्यक्ति, कर्ण, ने प्रवेश किया। कर्ण ने भी अपना धनुर्विद्या कौशल दिखाया, जो अर्जुन से कम नहीं था।
हालांकि, अर्जुन ने तुरंत हस्तक्षेप करते हुए कहा कि यह व्यक्ति क्षत्रिय नहीं है, और इसलिए इस प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकता। इसी समय भीम ने भी कर्ण का अपमान करते हुए उससे उसके पिता का नाम पूछा। कर्ण ने उत्तर दिया कि उसके पिता अधिरथ हैं, जो एक सूत (रथ चालक) थे। यह सुनकर लोगों ने कर्ण को प्रतियोगिता से बाहर निकालने की बात कही, क्योंकि वह क्षत्रिय नहीं था।

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दुर्योधन का हस्तक्षेप

दुर्योधन, जो हमेशा अर्जुन के खिलाफ एक योग्य प्रतिद्वंद्वी की तलाश में था, ने कर्ण की प्रतिभा को पहचाना। उसने तुरंत कर्ण का पक्ष लिया और हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र से प्रार्थना की कि कर्ण को एक राजा बनाया जाए, ताकि अर्जुन को उससे लड़ने का कोई बहाना न मिले।
दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा बनाने का प्रस्ताव रखा, जो उस समय बिना शासक के था। धृतराष्ट्र की अनुमति से उसी क्षण कर्ण का राज्याभिषेक किया गया और वह अंगराज कर्ण बन गया। इस प्रकार, कर्ण को राजसी उपाधि मिल गई और वह अर्जुन का प्रतिद्वंद्वी बनने के योग्य हो गया।

कर्ण की वफादारी

दुर्योधन के इस उपकार ने कर्ण को भावनात्मक रूप से गहराई से प्रभावित किया। एक जीवनभर जिस भेदभाव और अपमान का सामना कर्ण ने किया था, वह उस दिन समाप्त हो गया जब दुर्योधन ने उसे गले लगाकर उसे अपना मित्र और भाई बना लिया। कर्ण ने उस दिन से अपनी वफादारी दुर्योधन के प्रति बांध ली और जीवनभर उसके प्रति निष्ठावान बना रहा।

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यह वफादारी इतनी गहरी थी कि कर्ण ने दुर्योधन के हर सही-गलत फैसले में उसका साथ दिया, भले ही उसे खुद अपने सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता करना पड़ा हो।

गृह युद्ध की भूमिका

कर्ण के अंगराज बनने के बाद, कौरवों की शक्ति में भारी इजाफा हुआ। कर्ण की बुद्धिमत्ता, साहस और युद्ध कौशल ने दुर्योधन के पक्ष को और मजबूत बना दिया। इस शक्ति संतुलन ने हस्तिनापुर में एक प्रकार का तनाव उत्पन्न कर दिया। महल में और पूरे राज्य में लोग अब पांडवों और कौरवों के बीच विभाजित होने लगे थे।
धृतराष्ट्र ने पांडवों को तीर्थयात्रा पर भेजने की योजना बनाई, ताकि गृह युद्ध की संभावनाओं को टाला जा सके। लेकिन यह योजना शकुनि द्वारा बनाई गई एक चाल थी, ताकि पांडवों को राजनीतिक रूप से कमजोर किया जा सके और कौरवों की सत्ता को और मजबूत किया जा सके।

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कर्ण और दुर्योधन की मित्रता मह

महाभारत की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। दुर्योधन ने कर्ण को अपना मित्र बनाकर न केवल अपनी व्यक्तिगत शक्ति को बढ़ाया, बल्कि कौरवों को एक अत्यधिक कुशल योद्धा भी प्रदान किया, जो पांडवों के खिलाफ युद्ध में उनकी सहायता करेगा। कर्ण की वफादारी और दुर्योधन की उसे अर्जुन के खिलाफ इस्तेमाल करने की रणनीति ने महाभारत के घटनाक्रम को गहराई से प्रभावित किया।

दुर्योधन और कर्ण की यह मित्रता महाभारत के युद्ध के केंद्रीय विषयों में से एक बन गई, जिसने दोनों की किस्मत और पूरे कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम को तय किया। कर्ण, जिसने जीवनभर सामाजिक भेदभाव और अपमान का सामना किया, अंततः दुर्योधन की दोस्ती में बंध गया, और अपनी अंतिम सांस तक उसकी वफादारी निभाता रहा।

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