India News (इंडिया न्यूज़), श्री राम: भगवान् राम भारत में मौजूद मिट्टी के हर कण में बसते हैं, श्री राम हर भारतीय के दिल में बसते हैं। उन्हीं से भारत की संस्कृति है और उन्हीं से भारत की पहचान है। भगवान् राम अंतर्यामी और सर्वज्ञ हैं, उनसे कुछ नहीं छिपा, लेकिन फिर भी एक सवाल अक्सर लोगों के मन में उठता है। आज उस सवाल को जानेंगे और उसका सुन्दर सा जवाब भी जानेंगे।
सनातन धर्म सवाल करने की इजाज़त देता है, आप भगवान् की लीला समझने के लिए उन पर भी सवाल उठा सकते हैं।
माँ सीता के हरण के बाद भगवान् राम इतने ज़्यादा टूट गए, दुखी हो गए कि वो बस अपनी सिया को एक झलक देखना चाहते थे, वन में भटकते भटकते वो पेड़ पौधों से और जानवरों से अपनी सिया का पता पूछने लगे। भगवन की ये लीला दर्शाती है कि वो माँ सीता से जुड़ा होकर कितने टूट चुके थे, ये जुदाई उनसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। विरह में वो खाना पीना भी भूल गए थे।
तो सवाल ये है कि जब वो अंतर्यामी थे, उन्हें मालूम था माँ सीता कहाँ हैं तो वो पेड़ पौधों से क्यों पूछते रहे?
इसका जवाब जानने के लिए लटूरी सिंह के जीवन की एक घटना को जानना होगा।
उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ के एक ज़मीदार थे लटूरी सिंह, उन्हें अभिनय का बड़ा शौक था। हर चौमास वो नाटक मण्डली को अपने गाँव बुलवाते थे और कलाकारों के साथ वो खुद भी मंच पर अभिनय किया करते थे। हर बार की तरह उन्होंने नाटक मण्डली बुलवाई और राजा भरथरी के जीवन की एक घटना पर नाटक करने का निश्चय किया। राजा का किरदार लटूरी सिंह निभा रहे थे। 9 दिनों का नाटक था और 8वां दिन ख़त्म हो चुका था। 8वें दिन लटूरी सिंह घर पर खाना खा रहे थे, खाना खाते हुये उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि कल नाटक का आखिरी दिन है और तुम नाटक देखने मत आना। नाटक के आखिरी दिन मंच पर नाटक शुरू हुआ, लटूरी सिंह की पत्नी के अलावा बेटे, बहु, भाभी सब आये नाटक देखने। पत्नी घर पर अकेली थी और उनके मन में शक के बादल घिरने लगे। आखिर ऐसी कौन सी बात है जो मुझे नहीं बताया, मुझसे क्या छिपाया जा रहा है? महिलाओं का स्वाभाव होता है, पति मना करे और पत्नी मान जाये ऐसी महिलाएं न कभी थीं और न कभी होंगी। चौधराइन ने दरवाज़ा बंद किया और निकल गयीं नाटक देखने, छिप के देखने के लिए रिश्ते में अपनी जेठानी के वहहत पर बैठ कर नाटक देखने लगीं।
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मंच पर राजा के सन्यासी बन जाने का सीन चल रहा था, लटूरी सिंह ने अपने राजा के कपड़े उतारे और भगवा रंग का वस्त्र धारण कर लिया और अपने डायलॉग बोलने लगे “मैं राजा भरथरी अपने ह्रदय में बसे शंकर, अग्नि और जल को साक्षी मानकर ये सौगंध लेता हूँ कि इसी समय से मई हर संपत्ति, सिंघासन का त्याग करता हूँ, आज से कोई मेरा बेटा नहीं है, कोई मेरी बेटी नहीं है, यहाँ मौजूद सभी स्त्रियां मेरी बहन और माँ हैं। इतना बोलते ही लटूरी सिंह की भाभी चिल्लाई “ओए लटूरी तेरी लुगाई बैठी है यहाँ”। नाटक ख़त्म हुआ, सब अपने घर गए, कलाकारों ने कपड़े बदले पर लटूरी सिंह वही भगवा कपड़ा पहने रह गए, उन्होंने भिक्षा पात्र उठाया और अपने जाकर अपने घर के दरवाज़े पर बैठ गया, आवाज़ लगाया, “भिक्षा दो माँ”। अंदर से पत्नी बाहर आयी चौंक गयीं और कहा, आपने अभी भी वही कपड़े पहने हैं, चलिए अंदर आइये”। मैंने तुम्हे वहां आने से मना किया था क्योंकि जब मैं अनुभव करता हूँ तो मेरे अंदर शंकर होते हैं, मैं एक भी पल उस अभिनय को असत्य नहीं मानता, उसे सत्य मानता हूँ। मैंने जो प्रतिज्ञा ली थी वो सच था इसीलिए आज से तुम मेरी माता हो क्योकि मैंने प्रतिज्ञा ली थी कि मंच के पास बैठी सभी महिलाएं मेरी माता हैं।” बच्चों ने बहुत समझाया पर लटूरी सिंह नहीं माने।
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अगर लटूरी सिंह एक अभिनय जीने के लिए इतने सीरियस हो सकते थे कि उन्होंने अपना जीवन त्याग दिया, तो भगवान राम जो विष्णु की 8 कलाओं को लेकर पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, वो इस मनुष्य जीवन को जीने के लिए इतने सीरियस तो हो ही सकते थे कि पशु पक्षी, पेड़ पौधों से पूछें कि मेरी पत्नी कहाँ है।
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