India News(इंडिया न्यूज),Dada Saheb Phalke Death Anniversary: मई 1910, यही वह समय था जब भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र की नींव रखी गई थी। आज ही के दिन फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ रिलीज हुई थी। इस फिल्म को देखने के लिए धुंडीराज गोविंद फाल्के थिएटर गए थे। फिल्म खत्म होते ही दर्शकों में बैठा एक शख्स जोर-जोर से तालियां बजाने लगा। लोग उसे देखकर हैरान रह गये। ये शख्स थिएटर में दिखाई जाने वाली कोई भी ब्रिटिश फिल्म देखना नहीं भूलता था। लेकिन इस फिल्म में कुछ खास था जो इस शख्स को पसंद आया और यहीं से फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने का विचार पैदा हुआ। दरअसल, ये शख्स कोई और नहीं बल्कि हिंदी सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के थे। आज दादा साहब फाल्के की 79वीं जयंती है। हिंदी सिनेमा की अपनी पहली फिल्म बनाने के लिए दादा साहब को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। तो आइए आज उनकी पुण्य तिथि पर जानते हैं उनसे जुड़े कुछ खास किस्से।
दादा साहब के लिए फ़िल्में बनाना इतना आसान नहीं था। उस समय कोई नयी तकनीक नहीं थी और जो भी थी उसका भारत में मिलना कठिन था। दादासाहब एक महान हरफनमौला व्यक्ति थे। इससे पहले उन्होंने पेंटिंग, प्रिंटिंग आदि कई काम किए थे। ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखने के बाद उन्होंने भारत में फिल्म बनाने का फैसला किया था। अब निर्णय लेने के बाद उससे पीछे हटना उनके स्वभाव में नहीं था। तो हुआ भी कुछ ऐसा ही। उन्होंने फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने का फैसला किया था। लेकिन इसके लिए कलाकार, उपकरण, पैसा, लोगों के लिए भोजन सब कुछ की व्यवस्था करनी पड़ी। फिल्म निर्माण के लिए दादासाहब ने कई लोगों से धनराशि मांगी। लेकिन, इस नये काम में पैसा लगाने से हर कोई डरता था। उन्हें समझाने के लिए दादासाहब ने पौधों के विकास पर एक लघु फिल्म बनाई। तभी दो लोग उन्हें फंड देने के लिए राजी हो गए। हालाँकि, मुश्किलें अभी भी कम नहीं थीं। इसलिए, दादासाहब ने फिल्म बनाने के लिए न केवल अपनी पत्नी के गहने और संपत्ति गिरवी रख दी, बल्कि कर्ज भी लिया।
अब दादासाहब के सामने एक और समस्या थी। उन्होंने कभी कोई फिल्म नहीं बनाई थी। देश में इससे पहले कभी कोई फिल्म नहीं बनी थी। अतः फ़िल्म निर्माण की तकनीक सीखने के लिए वे 1912 में लंदन चले गये। वहां से वह एक कैमरा और फिल्म निर्माण के लिए आवश्यक कुछ सामग्री लेकर भारत लौट आये। उन्होंने फिल्म की शूटिंग बॉम्बे में करने का फैसला किया।
उस समय फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था और दादा साहब अपनी फिल्म के लिए अभिनेत्री की तलाश में थे। कोई भी महिला फिल्म में काम करने के लिए तैयार नहीं थी। परेशान होकर दादा साहब अपनी अभिनेत्री की तलाश पूरी करने के लिए रेड लाइट एरिया में चले गए। समस्या इतनी बड़ी थी कि वहां भी उनका काम नहीं बन सका। कोई भी महिला कार्रवाई के लिए तैयार नहीं थी।
दादासाहब के पास अब कोई उपाय नहीं बचा था। उस समय मराठी थिएटर में महिलाओं की भूमिका भी पुरुष ही निभाते थे। दादासाहब ने इस फ़िल्म के लिए भी यही उपाय सोचा। उनका रसोइया दत्तात्रेय दिखने में अच्छा था। ऐसे में दादा साहब को अपनी फिल्म का हुनर महसूस हुआ। फिर उन्होंने अपने रसोइये दत्तात्रेय दामोदर को अपनी फिल्म में काम करने के लिए मना लिया। भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र में राजा का किरदार दत्तात्रेय ने निभाया था और उनके बेटे रोहित का किरदार दादा साहब के बेटे भालचंद्र फाल्के ने निभाया था।
अभी भी एक कठिनाई बाकी थी। दादा साहब ने फिल्म की शूटिंग के लिए 500 लोगों को जुटाया था लेकिन समस्या यह थी कि उनके लिए भोजन की व्यवस्था कैसे की जाए। इस काम को उनकी पत्नी सरस्वती ने आसान बना दिया। सरस्वती न केवल हर दिन 500 लोगों के लिए खाना बनाती थीं, बल्कि क्रू के रहने, कपड़े धोने, सोने आदि से लेकर प्रोडक्शन के सारे काम भी संभालती थीं। आपको जानकर हैरानी होगी कि फिल्म की शूटिंग के दौरान वहां कोई महिला नहीं थी। सेट पर दादा साहब फाल्के की पत्नी सरस्वती को छोड़कर।
हर कठिनाई का सामना करते हुए दादा साहब और उनकी पत्नी फिल्म का निर्माण करने में सफल रहे। इस दौरान फिल्म की छपाई में भी सरस्वती ने रात भर दादा साहब का साथ दिया। 7 महीने बाद फिल्म बनकर तैयार हो गई। 3 मई 1913, यही वह दिन था जब हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली फीचर फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी। एक साल बाद ये फिल्म लंदन में भी रिलीज हुई। दिलचस्प बात ये है कि ये पहली फिल्म थी जो पूरी तरह से भारतीय थी। चाहे वो फिल्म में काम करने वाले कलाकार हों या फिल्म की कहानी।
राजा हरिश्चंद्र की रिलीज के बाद दादा साहब को इस फिल्म से जुड़े कई विवादों का भी सामना करना पड़ा। लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की नींव दादा साहब ने रखी थी। दादा साहब का फ़िल्मी करियर 19 साल तक चला। इस दौरान उन्होंने 26 लघु फिल्मों सहित लगभग 121 फिल्मों का निर्माण किया।
दादा साहब को भारतीय फिल्मों का जनक कहा जाता है। उन्होंने 19 साल तक फिल्मों में सक्रिय योगदान दिया। इसके बाद 16 फरवरी 1944 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी मृत्यु के बाद भारत सरकार ने 1969 में उनके नाम पर दादा साहब फाल्के पुरस्कार शुरू किया। देविका रानी यह सम्मान पाने वाली पहली अभिनेत्री थीं।
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