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Purandar Treaty 1665: भारत के इतिहास में कई घटनाएं ऐसी हैं, जिनका प्रभाव केवल तत्कालीन समय पर ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों पर भी पड़ा. ऐसी ही एक घटना है पुरंदर की संधि (Treaty of Purandar), जो 11 जून 1665 को छत्रपति शिवाजी महाराज और मुगलों के सेनापति राजा जय सिंह प्रथम के बीच हुई थी. यह संधि केवल एक राजनीतिक समझौता नहीं थी, बल्कि मराठा साम्राज्य की रणनीति और भविष्य की तैयारी का हिस्सा भी थी. इस संधि के ऊपर UPSC और अन्य परीक्षाओं में सवाल पूछे जाते हैं.
क्या थी पुरंदर की संधि?
1660 के दशक में मुगलों और मराठों के बीच लगातार संघर्ष चल रहा था. मुगल सम्राट औरंगजेब ने अपने सेनापति जय सिंह प्रथम को मराठा क्षेत्रों पर आक्रमण करने के लिए भेजा. जय सिंह ने प्रमुख किले पुरंदर और अन्य महत्वपूर्ण किलों को घेर लिया. इस समय शिवाजी महाराज और उनके परिवार की सुरक्षा खतरे में थी. शिवाजी ने समझदारी और रणनीति के तहत यह निर्णय लिया कि वर्तमान परिस्थितियों में सीधे युद्ध करना उनके लिए खतरे का कारण बन सकता है. ऐसे में संधि करना उनके लिए एक रणनीतिक विकल्प था, ताकि मराठा साम्राज्य को पुनर्गठित करने और भविष्य के युद्ध के लिए तैयारी का समय मिल सके.
क्या थी पुरंदर संधि की मुख्य शर्तें?
पुरंदर की संधि के तहत कुछ महत्वपूर्ण शर्तें रखी गईं, इस संधि में शिवाजी की हार नहीं बल्कि उस वक्त की गहराई को देखते हुए लिया गया था, इसमें शिवाजी ने अपने कुल 35 किलों में से 23 किलों को मुगलों को सौंपा, जिससे उनके पास केवल 12 किले बचे. उन्होंने मुगलों को 4 लाख हूण का राजस्व देने वाली जमीन सौंपी. जिसके बाद उनके पुत्र संभाजी को मुगल दरबार में 5,000 घोड़ों की मनसबदारी दी गई और आवश्यकता पड़ने पर मुगलों का साथ देने का वचन शिवाजी ने दिया।
संधि के बाद क्या थी शिवाजी की रणनीति?
यह समझौता शिवाजी की हार नहीं, बल्कि रणनीतिक स्थिरता का उदाहरण था। इस समय के दौरान शिवाजी ने मुगलों की युद्ध रणनीति को बारीकी से समझा. अपने बचाए गए किलों और सैनिकों की मदद से 1670 में सभी किले वापस जीत लिए और 1674 में मराठों के स्वतंत्र साम्राज्य का ताज धारण किया. इस तरह, पुरंदर की संधि ने शिवाजी महाराज को केवल कठिन परिस्थितियों में क्षणिक स्थिरता प्रदान नहीं की, बल्कि उनके सामरिक कौशल और दूरदर्शिता को भी साबित किया.