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India News (इंडिया न्यूज), Food Justice: करदाताओं द्वारा वित्तपोषित एक शोध परियोजना ने दूध और उपनिवेशवाद के बीच संबंधों के बारे में बहस छेड़ दी है। जिससे यह सवाल उठता है कि क्या दूध को नस्लवादी माना जा सकता है। विभिन्न विश्वविद्यालयों के शिक्षाविदों द्वारा किए गए शोध परियोजना का उद्देश्य दूध की खपत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक निहितार्थों और औपनिवेशिक प्रथाओं से इसके संबंधों का पता लगाना है। यह परियोजना इस बात पर गहराई से विचार करती है कि औपनिवेशिक काल के दौरान दूध को शुद्धता और श्रेष्ठता के प्रतीक के रूप में कैसे बढ़ावा दिया गया। अक्सर स्थानीय और स्वदेशी संस्कृतियों की कीमत पर यह शोध इस तरह के प्रचार के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव और आधुनिक समाज पर इसके लंबे समय तक चलने वाले प्रभावों को समझने का प्रयास करता है।
बता दें कि औपनिवेशिक युग के दौरान यूरोपीय शक्तियों ने विभिन्न उपनिवेशों में दूध और डेयरी फार्मिंग की शुरुआत की। इसे एक बेहतर खाद्य उत्पाद के रूप में बढ़ावा दिया। इससे अक्सर स्वदेशी आहार प्रथाओं को हाशिए पर डाल दिया गया और यूरोपीय मानदंडों को लागू किया गया। शोध दल इस बात की जांच कर रहा है कि इन प्रथाओं को कैसे उचित ठहराया गया और कैसे कायम रखा गया। उपनिवेशों की मूल आबादी पर उनका क्या प्रभाव पड़ा। अध्ययन का एक पहलू यह देखता है कि विभिन्न क्षेत्रों में दूध का विपणन कैसे किया जाता था। विज्ञापनों और नीतियों पर प्रकाश डाला जाता था जो दूध को स्वास्थ्य और सभ्यता के लिए आवश्यक बताते थे। ये कथाएँ अक्सर नस्लीय श्रेष्ठता के बारे में निहित संदेश देती थीं, जो औपनिवेशिक पदानुक्रम को मजबूत करती थीं।
बता दें कि, प्रमुख शोधकर्ताओं में से एक डॉ. सामंथा जोन्स ने कहा कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि दूध अपने आप में नस्लवादी है। बल्कि यह देख रहे हैं कि इसे उपनिवेशवाद के एक उपकरण के रूप में कैसे इस्तेमाल किया गया। आज हमारे लिए इसका क्या मतलब है। यह शोध हमें व्यापक ऐतिहासिक आख्यानों को समझने में मदद करता है। जिसने हमारी खाद्य प्रणालियों को आकार दिया है और आगे बढ़ने के लिए अधिक समावेशी प्रथाओं को सूचित कर सकता है।
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