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महाकुंभ मेला में लगाई ड्यूटी.. आखिर क्यों विद्रोह कर सड़कों पर उतरे पीएसी, सेना ने जवानों पर कि ऐसी गोलीबारी की फिर….?

PUBLISHED BY: Prachi Jain • LAST UPDATED : December 12, 2024, 2:00 pm IST
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महाकुंभ मेला में लगाई ड्यूटी.. आखिर क्यों विद्रोह कर सड़कों पर उतरे पीएसी, सेना ने जवानों पर कि ऐसी गोलीबारी की फिर….?

PAC Agitation: भारतीय सेना के हस्तक्षेप से स्थिति सुधरने की बजाय और बिगड़ गई।

India News (इंडिया न्यूज), PAC Agitation: 1973 में उत्तर प्रदेश का प्रांतीय सशस्‍त्र बल (पीएसी) अपने अनुशासन और कर्तव्य के लिए जाना जाता था। लेकिन 21 मई 1973 को, एक ऐसी घटना घटी जिसने पीएसी की छवि को हमेशा के लिए बदल दिया। यह घटना थी पीएसी के जवानों की बगावत, जिसने सरकार, प्रशासन और जनता को हिलाकर रख दिया।

विद्रोह की शुरुआत

सब कुछ तब शुरू हुआ जब कुंभ मेले के दौरान ड्यूटी पर तैनाती की खबर आई। पहले से ही कम सैलरी, खराब कार्य परिस्थितियों और सम्मान की कमी से नाराज जवानों का गुस्सा उनके अधिकारियों तक पहुंचा। लेकिन अधिकारियों ने इसे गंभीरता से लेने के बजाय जवानों को ड्यूटी पर ध्यान देने का निर्देश दिया।

अधिकारियों की बेरुखी से नाराज जवानों ने बगावत का रास्ता चुना। मेरठ में पीएसी की तीन बटालियनों ने विद्रोह की शुरुआत की। जवानों ने सरकार के आदेश मानने से इनकार कर दिया और सड़कों पर उतरकर हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए। जल्द ही बरेली और आगरा में तैनात पीएसी के जवान भी इस विद्रोह में शामिल हो गए। देखते ही देखते, यह विद्रोह लखनऊ तक फैल गया।

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हिंसा की आग

पीएसी के जवान, जो आमतौर पर अनुशासन के प्रतीक माने जाते थे, अपनी मांगों को लेकर इतना हिंसक हो गए कि उन्होंने पुलिस स्टेशनों, सरकारी इमारतों और सार्वजनिक संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया। लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं ने भी इस विद्रोह का फायदा उठाने की कोशिश की, जिससे हालात और बिगड़ गए। विश्वविद्यालय का परिसर युद्ध के मैदान में बदल गया, और विद्रोहियों ने कई इमारतों को जला दिया।

स्थिति काबू से बाहर

उत्तर प्रदेश पुलिस पूरी कोशिश के बावजूद इन विद्रोहियों को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी। अंततः केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। गृह मंत्रालय ने बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) के तत्कालीन महानिदेशक केएफ रुस्तमजी को स्थिति संभालने की जिम्मेदारी सौंपी।

केएफ रुस्तमजी ने गृह मंत्रालय को बताया कि स्थिति पर काबू पाने के लिए सीमा से 20 बटालियन हटानी होंगी। चूंकि इतना समय नहीं था, भारतीय सेना को मोर्चा संभालने के लिए बुलाया गया।

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सेना और बीएसएफ का हस्तक्षेप

भारतीय सेना के हस्तक्षेप से स्थिति सुधरने की बजाय और बिगड़ गई। कई जगहों पर सेना को गोलियां चलानी पड़ीं, जिसमें कुछ विद्रोही जवान मारे गए। बिगड़ते हालात को देखते हुए सेना को गोली चलाने से मना कर दिया गया।

इस बीच, बीएसएफ की बटालियनों ने उत्तर प्रदेश में पहुंचकर रणनीतिक रूप से विद्रोही पीएसी जवानों को घेरना शुरू किया। बीएसएफ के लेफ्टिनेंट कर्नल आरपी बस्सी ने बिना हिंसा का सहारा लिए विद्रोहियों को सरेंडर करने के लिए मजबूर किया।

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विद्रोह का अंत

बीएसएफ, भारतीय सेना और स्थानीय पुलिस के संयुक्त प्रयासों से कुछ ही दिनों में स्थिति पर काबू पा लिया गया। विद्रोही जवानों ने सरेंडर कर दिया, और उत्तर प्रदेश में शांति बहाल हुई। इस ऑपरेशन के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल आरपी बस्सी को खास तौर पर सराहा गया।

सबक और प्रभाव

1973 का पीएसी विद्रोह एक ऐसा अध्याय था, जिसने सरकार और प्रशासन को पीएसी जवानों की समस्याओं को गंभीरता से समझने पर मजबूर किया। यह घटना न केवल प्रशासनिक विफलता का उदाहरण थी, बल्कि यह भी दिखाती है कि जब अनुशासन और संतोष के बीच संतुलन बिगड़ता है, तो परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं।

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यह विद्रोह भारतीय सुरक्षा बलों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जो प्रशासनिक सुधारों और जवानों के अधिकारों की आवश्यकता की ओर इशारा करता है।

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