India News (इंडिया न्यूज़), India Operations, नई दिल्ली: देश को कई बार ऐसे हालातों का सामना करना पड़ा है। जब हमारे देश के जवानों ने अपनी जान की बाजी लगातार उन हालातों से देश को बाहर निकाला है। समय-समय पर भारतीय सेना ने देशवासियों के लिए कई अहम और चुनौतीपूर्ण ऑपरेशन चलाए हैं। जिसके चलते देश के हर नागरिक को अपने भारतीय होने पर गर्व होगा। तो आइए आज ऐसे ही देश में चलाए गए 10 ऑपरेशन के बारे में आपको रूबरू कराते हैं।
पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की हरकतें भले ही अच्छे पड़ोसी वाली न हो, लेकिन दुश्मनी निभाने में उस मुल्क ने आज तक कभी कोई कसर नहीं छोड़ी है। कभी जमीनी सरहद पर, तो कभी पानी के अंदर पाकिस्तान को हर बार भारत से मुंह की खानी पड़ी है। फिर भी पाकिस्तान अपनी कोशिश और भारतीय सेना से हारने का ख्वाब कभी नहीं छोड़ता है। इसीलिए इस बार पाकिस्तान सबसे ऊंची चोटी सियाचिन पर कब्जा करने के मुंगेरीलाल के सपने देख रहा था। वो ऊंची-ऊंची बर्फों से ढकी सफेद पहाड़ियां, तापमान -50 डिग्री, और भारतीय सेना के जवान मुस्तैदी से अपने हौसलों को बुलंद किए सियाचिन सरहद पर पाकिस्तानी सेना को मात देने के लिए तैयार बैठे थे।
13 अप्रैल 1984 में भारतीय सेना का यह अभियान शुरू हुआ था। उस वक्त पाकिस्तान अपने ऑपरेशन अबाबील के तहत सियाचिन ग्लेशियर के सल्तोरो रिज को हथियाने की योजना बना रहा था। तभी भारत ने ऑपरेशन मेघदूत की शुरूआत की थी। ऑपरेशन मेघदूत के तहत भारतीय सैनिकों को वायुसेना के II-76, AN-12 और AN-32 विमानों से ऊंचाई वाली एयरफील्ड तक पहुंचाया गया। वहां से MI-17, MI-8, चेतक और चीता हेलीकॉप्टरों के जरिए सैनिकों को ग्लेशियर की उन चोटियों तक पहुंचा दिया गया था। जहां तब तक इंसानों के कदम तक नहीं पड़े थे।
जब पाकिस्तानी फौज इस इलाके में पहुंची तो उन्होंने पाया कि करीब 300 भारतीय जांबाज पहले से ही सियाचिन, सलतोरो ग्लेशियर, साई-लॉ, बिलाफोंड लॉ दर्रे पर क़ब्ज़ा जमाए बैठे हुए हैं। इस तरह से भारतीय जवानों ने पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर एक बार फिर से बुरी तरह पानी फेर दिया था। हालांकि इस पूरे ऑपरेशन के दौरान कितने जवान शहीद हुए इसके सही आंकड़े आजतक सामने नहीं आए हैं। वहीं आज, भारतीय सेना की तैनाती के स्थान को वास्तविक ग्राउंड पॉजिशन लाइन (AGPL) के रूप में जाना जाता है।
ऑपरेशन मेघदूत को जम्मू, कश्मीर के श्रीनगर में 15 कॉर्प के तत्कालीन जनरल ऑफिसर कमांडिंग लेफ्टिनेंट जनरल प्रेम नाथ हुून की अगुवाई में अंजाम दिया गया था। कालीदास द्वारा 4वीं शताब्दी ईस्वी संस्कृत नाटक के दिव्य बादल दूत से प्रेरित होकर इसे ऑपरेशन मेघदूत नाम दिया गया था। तब से भारतीय फौज सियाचिन की दुर्गम पहाड़ियों पर हर तरह के मुश्किल हालात का सामना करती हुईं डटी हुई है।
ये कहानी साल 1961 की है, जब भारतीय सेना ने 19 दिसंबर 1961 में गोवा को पुर्तगाली शासन से आजादी दिलाई थी। 18 दिसंबर, 1961 को ऑपरेशन विजय के तहत भारतीय सेना की तीनों टुकड़ियों (जल, थल और नभ) ने गोवा में प्रवेश कर 451 साल की गुलामी से गोवा को आजादी दिलाई थी। इस युद्ध में भारत और पुर्तगाल की सेना के बीच लगभग 36 घंटे तक लगातार युद्ध चला। जिसके बाद आखिरकार पुर्तगाली सेना ने भारत के सामने घुटने टेक दिए। यह भारत के प्रयास का ही परिणाम था कि 30 मई 1987 को गोवा को राज्य का दर्जा मिला। यही वजह है कि हर साल 19 दिसंबर को गोवा में मुक्ति दिवस के रूप में आजादी का जश्न मनाया जाता है।
बता दें कि ब्रिटिश और फ्रांस के सभी औपनिवेशिक अधिकारों के खत्म होने के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप गोवा, दमन और दीव में पुर्तगालियों का शासन था। पुर्तगाली भारत सरकार की बार-बार बातचीत की मांग को ठुकरा दे रहे थे। जिसके बाद भारत सरकार ने ऑपरेशन विजय के तहत सेना की छोटी टुकड़ी भेजी। जिसमें कुल 30,000 जवान शामिल थे। 18 दिसंबर 1961 के दिन ऑपरेशन विजय की कार्रवाई की गई। भारतीय सैनिकों की टुकड़ी ने गोवा के बॉर्डर में प्रवेश किया। 36 घंटे से भी ज्यादा वक्त तक जमीनी, समुद्री और हवाई हमले हुए। इसके बाद जनरल मैनुएल एंटोनियो वसालो ए सिल्वा ने बिना किसी शर्त के भारतीय सेना के समक्ष 19 दिसंबर को आत्मसमर्पण किया।
दरअसल, भारत के लिए गोवा को आजादी दिलाने के पीछे एक ख़ास वजह थी। गोवा पश्चिमी भारत में बसा एक छोटा सा राज्य है। अपने छोटे आकार के बावजूद यह बड़ा ट्रेड सेंटर था और मर्चेंट्स, ट्रेडर्स को आकर्षत करता था। प्राइम लोकेशन की वजह से गोवा की तरफ मौर्य, सातवाहन और भोज राजवंश भी आकर्षत हुए थे। 350 ई. में गोवा बाहमानी सल्तनत के अधीन चला गया। लेकिन 1370 में विजयनगर सम्राज्य ने इसपर फिर से शासन जमा लिया। विजयनगर साम्राज्य ने एक सदी तक इसपर तब तक आधिपत्य जमाए रखा। जब तक कि 1469 में बाहमानी सल्तनत फिर से इसपर कब्जा नहीं जमा लिया।
आपको बता दें कि भारत के आजाद होने के करीब साढ़े 14 साल बाद गोवा आजाद हुआ था। भारतीय सेना के बलिदान और श्रम के साथ-साथ इसके पीछे स्वतंत्रता की मशाल जलाने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया थे।
भारतीय सेना के अथक प्रयासों के बाद एक ऐसा राज्य जिसका संरक्षक भारत कर रहा था। वह खुद भारत मैं विलय हो गया। हम यहां बात कर रहे हैं भारतीय सेना के उस Operation के बारे में। जिसके बाद सिक्किम भारत का हिस्सा बन गया था। आजादी के 27 साल बाद भी सिक्किम एक स्वतंत्र राष्ट्र था। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और देश की खुफिया एजेंसी रॉ के प्रयासों के बाद 26 अप्रैल, 1975 को सिक्किम का भारत में विलय हो गया। जिसके 20 दिन बाद 16 मई, 1975 को सिक्किम को भारत के 22वें राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ था।
बता दें कि जिस समय भारत आजाद हुआ था। उस समय सिक्किम पर नामग्याल राजवंश शासन कर रहा था। उस समय नामग्याल राजवंश ने भारत में सिक्किम के विलय के ऑफर को ठुकरा दिया था। वहीं भारत में जब सिक्किम का विलय हुआ तो उस वक्त चोग्याल का राज था। सिक्किम को भारत का 22वां राज्य बनाने का संविधान संशोधन विधेयक 23 अप्रैल, 1975 को लोकसभा में पेश किया गया था। इस विधेयक को उसी दिन 299-11 के मत से पास कर दिया गया था। जिसके बाद सिक्किम से नामग्याल राजवंश के शासन का अंत हो गया था।
विलय से पहले 6 अप्रैल 1975 की सुबह 5,000 भारतीय सैनिकों ने चोग्याल के महल पर हमला किया था। भारतीय सैनिकों ने 30 मिनट के अंदर ही राजमहल को अपने अधीन कर लिया था। वहीं चीन इस बात से नाखुश था। जिसके चलते चीन ने खुल कर सिक्किम के विलय पर विरोध जताया। वहीं दूसरी ओर चीन के अलावा नेपाल के नागरिक भी इस विलय के विरोध में थे। मगर चोग्याल को पद से हटाने और विलय की प्रक्रिया इतनी तेज थी कि वो लोग अच्छी तरह से कुछ भी समझ ही नहीं पाए। 8 मई को चोग्याल ने समझौते पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। जिसके बाद सिर्फ दो दिन के अंदर सिक्किम भारत के नियंत्रण में था।
खुफिया एजेंसी रॉ ने भी इस पूरे ऑपरेशन में अहम निभाई थी। उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रॉ की उच्च अधिकारियों के साथ सिक्किम को लेकर एक मीटिंग भी की थी। जिसमें रॉ के प्रमुख रामनाथ काव, PN हक्सर और PN धर ने हिस्सा लिया था।
ऑपरेशन गंगा हाल ही में चलाया गया एक ऐसा ऑपरेशन है, जिसकी वजह से न सिर्फ भारतीय सेना ने दूसरे मुल्क में रह रहे भारतीय नागरिकों की जान बचाई। बल्कि उन लोगों को भी वॉर से सुरक्षित बाहर निकाला गया। जो की अन्य मुल्क से तालुकात रखते हैं। जी हां, रूसी सेना उन लोगों को सिर्फ इसीलिए छोड़ दे रही थी क्योंकि उनके हाथ में भारत का झंडा था।
यूं तो भारत से पढ़ने के लिए बच्चे देश विदेश में जाते हैं। लेकिन शायद आपको ये जान कर हैरानी होगी की भारत से 18000 स्टूडेंट्स यूक्रेन पढ़ने के लिए गए थे। साल 2022 में अचानक रूस और यूक्रेन के बीच तनाव शुरू हुआ और ये समय के साथ बढ़ता ही चला गया। 24 फरवरी 2022 को रूस ने यूक्रेन पर हमला कर युद्ध का आगाज कर दिया। मिसाइल अटैक के चंद लम्हों में ही हजारों की संख्या में निर्दोष नागरिकों की जान चली गई। कई इमारतें तबाह हो गईं। जिसके चलते लोग देश छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए।
रूस का हमला इतना ज्यादा खतरनाक था कि इस हमले के बाद दुनिया ने यह मान लिया था कि यूक्रेन जल्द ही हार मान लेगा। यहां तक की खुद रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी ऐसा दावा किया था। लेकिन यूक्रेन जंग के मैदान में टिका है और अभी तक टिका हुआ है।
इस युद्ध के पीछे की वजह रूस ने NATO को बताया है। एक तरफ यूक्रेन नाटो समूह में शामिल होने की बात कह रहा था। वहीं रूस यह नहीं चाहता था और चेतावनी दे रहा था की वह इसे कतई सहन नहीं करेगा। जबकि पश्चिमी देश यूक्रेन का खुल कर समर्थन कर रहे थे। इसी को वजह बताते हुए रूस ने 25 फरवरी को यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई कर दी।
वहीं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली NDA सरकार के सामने यूक्रेन-रूस जंग के दौरान भारतीय छात्रों को बचाना और वहां से सुरक्षित वापस लाना एक बड़ी चुनौती थी। लेकिन भारत सरकार ने इस चुनौती को बखूबी पूरा किया और Operation Ganga का एलान कर दिया। यूक्रेन से भारतीय छात्रों को सुरक्षित एयरलिफ्ट करने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था। इसमें चार केंद्रीय मंत्री- हरदीप सिंह पुरी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, किरेन रिजिजू और जनरल (आर) वीके सिंह शामिल थे। प्लान के मुताबिक उन्हें बचाव अभियान के समन्वय के लिए चार पड़ोसी देशों में भेजा गया था।
विदेश मंत्रालय ने 24×7 हेल्पलाइन भी लॉन्च किया था। 27 फरवरी को यूक्रेन से भारतीय छात्रों को लेकर पहली फ्लाइट दिल्ली पहुंची थी। इसी तरह से भारत के सभी नागरिकों को सुरक्षित भारत वापस लाया गया था। रिपर्ट्स के मुताबिक यूक्रेन में रहने वाले भारतीयों कि संख्या कुल 20,000 थी। ऑपरेशन गंगा 26 फरवरी से 11 मार्च तक चलाया गया था। युद्ध के कारण यूक्रेन का एयरस्पेस बंद हो गया था। जिसकी वजह से सैकड़ों छात्र को यूक्रेन से रोमानिया, हंगरी, पोलैंड, मोल्दोवा और स्लोवाकिया जैसे पड़ोसी देशों के जरिए भारत लाया गया था।
भारत ने अपने पड़ोसी मुल्क श्रीलंका की साल 1987 में मदद की थी। जिसके लिए ऑपरेशन पवन की योजना बनाई गई थी। ऑपरेशन पवन साल 1987 में भारतीय शांति सेना IPKF ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) से जाफना प्रायद्वीप पर नियंत्रण लेने के लिए एक सैन्य अभियान चलाया था। यह अभियान लगभग 3 हफ्ते तक चला था। जिसके चलते भारत के कई जवान शहीद हुए थे। मगर इस ऑपरेशन में भारत को जीत हासिल हुई थी। जिसमे श्रीलंका को असफलता हासिल हुई थी।
यह युद्ध श्रीलंका में1983 में अल्पसंख्यक तमिल आबादी और बहुसंख्यक सिंहली के बीच शुरू हुआ था। समय लिट्टे (जिसे तमिल टाइगर्स के नाम से भी जाना जाता है।) उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में तमिल मातृभूमि बनाने के उद्देश्य से एक प्रमुख विद्रोही गुट के रूप में उभरा था। वहीं सिंघली गुट भी जंग के लिए मैदान में उतर गया था। आंकड़े बताते हैं कि श्रीलंका की कुल आबादी का केवल 18 फीसदी हिस्सा ही तमिल हैं। साथ ही श्रीलंका की सिंघली बहुल सरकार की ओर से तमिलों के हितों की अनदेखी होती रही है। इससे तमिलों में असंतोष की भावना इतनी भरती गई है कि उसने विद्रोह का रूप ले लिया और वह स्वतंत्र राज्य तमिल ईलम की मांग के साथ उग्र हो गए थे।
भारत ने श्रीलंका के इस गृहयुद्ध में हस्तक्षेप इसलिए किया था। क्योंकि भारत और श्रीलंका के बीच 29 जुलाई 1987 को एक शांति समझौता हुआ था। जिसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जे. आर. जयवद्धने ने हस्ताक्षर किया था। इस समझौते के अनुसार, श्रीलंका में जारी गृहयुद्ध को खत्म करना था। इसके लिए श्रीलंका सरकार तमिल बहुल क्षेत्रों से सेना को बैरकों में बुलाने और नागरिक सत्ता को बहाल करने पर राजी हो गई थी। वहीं, दूसरी ओर तमिल विद्रोहियों के आत्मसमर्पण की बात हुई, लेकिन इस समझौते की बैठक में तमिल व्रिदोहियों को शामिल नहीं किया गया था। जिसके वजह से यह युद्ध और क्रूर होता चल गया। परिणाम स्वरूप भारत को जीत हासिल हुई थी।
मगर ऑपरेशन पवन की पूरी अवधि के दौरान, भारतीय सेना के 1200 सैनिक शहीद हुए थे। इस दौरान करीब 3000 सैनिक घायल हुए थे। इस ऑपरेशन में जीत का ताज पहनने के बाद 8 महार रेजीमेंट के मेजर रामास्वामी परमेश्वरम को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। बता दें कि ऑपरेशन पवन को भारतीय सेनाओं के लिए अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण ऑपरेशन करार दिया जाता है।
एक ऐसे ऑपरेशन के बारे में जिसमें भारत ने पड़ोसी देश में आए विपदा को देखते हुए बिना एक पल गवाएं भारत से मदद के लिए सेना भेज दी थी। इस ऑपरेशन का नाम Operation Maitri था। भारत के पड़ोसी मुल्क नेपाल में अप्रैल 2015 को ऐसा भूकंप आया जिसके बाद वहां लोग त्राहिमाम करने लगे। भूकंप की तीव्रता 7.8 थी। जिसकी वजह से पूरा नेपाल हिल गया था। इस बड़े और खतरनाक झटके की वजह से नेपाल में कुल 8,900 लोगों की मौत हो गई थी। वहीं नेपाल को विपदा में देख भारत ने महज 4 घंटे के अंदर ही राहत टीम नेपाल भेज दी थी। इसी के साथ भारत ही पहला देश था जिसने इतने कम समय और सबसे पहले राहत टीम भेजी थी।
काठमांडू में राहत सामग्री के साथ पहुंचने वाला सबसे पहला विमान भारतीय वायुसेना का ही था। भारत ने 24 घंटों के भीतर 10 राष्ट्रीय आपदा राहत बल (NDRF) की टीम नेपाल भेजी थी। जिनमें कुल 450 कर्मी और कई खोजी और बचाव कुत्ते शामिल थे। भारतीय वायुसेना के दस अतिरिक्त विमान भी सहायता के साथ उनके साथ शामिल होने के लिए रवाना हो गए थे। जिसमें भारत ने टेंट और भोजन सहित 43 ट्रेल्स टन राहत सामग्री भेजी थी। भारतीय वायु सेना ने नेपाल में सैकड़ों नागरिकों को रेस्क्यू कर बाहर निकाला था।
भारत ने हवाई मार्ग के जरिए काठमांडू को 10 टन कंबल, 50 टन पानी, 2 टन दवाएं और 22 टन खाद्य सामग्री भेजी थी। लगभग 1,000 राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल कर्मियों को भी सेवा में लगाया गया था। सड़क मार्ग के माध्यम से भारतीय नागरिकों की बड़ी निकासी चल रही थी। सरकार ने भारत-नेपाल सीमा पर दो मार्गों- सोनौली और रक्सौल के माध्यम से नेपाल में फंसे भारतीयों को निकालने के लिए 35 बसें तैनात की थीं। वहीं भारत ने नेपाल में फंसे विदेशियों को सद्भावना वीजा जारी करना शुरू कर दिया था। उन्हें सड़क मार्ग से भारत लाने के लिए बसें और एम्बुलेंस मुहैया करवाई थी।
भारतीय वायु सेना ने 12 विमान उड़ानों का उपयोग करके नेपाल से 1935 भारतीय नागरिकों को निकाला था। इस ऑपरेशन के जरिए भारत ने नेपाल को चिकित्सा टीम, इंजीनियर टास्क फोर्स, लाखों लीटर पानी, तंबू, कंबल, ऑक्सीजन सिलेंडर समेत अन्य जरूरी सामान नेपाल पहुंचाया था। भारत का ये ऑपरेशन लगभग 40 दिन तक चला था। जिसमें राहत और बचाव के लिए भारत की गोरखा रेजिमेंट के नेपाली पूर्व सैनिक भी शामिल थे।
आजादी मिलने के बाद भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि सैकड़ों विरासतों को कैसे एकजुट किया जाए और इनका भारत में विलय कराया जाए। इसके लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। करीब 550 से ज्यादा रियासतों को भारत में शामिल होने का न्योता दिया गया। जिनमें से ज्यादातर रियासतों ने आसानी से सरकार की बात मान ली और भारत में अपना विलय कर लिया। लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थीं। जिन्होंने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया था। जिनमें त्रावणकोर, जोधपुर, जूनागढ़, भोपाल और हैदराबाद की रियासतें शामिल थीं।
इन सभी रियासतों में से चार रियासतों का जैसे-तैसे अपनी शानदार कूटनीति से सरदार पटेल ने भारत में विलय करा लिया। लेकिन हैदराबाद ने भारत विलय के लिए साफ इंकार कर दिया था। बता दें कि हैदराबाद रियासत, देश की सबसे धनी और सबसे बड़ी रियासत थी। हैदराबाद की अपनी सेना और रेल सेवा थी। वहां के प्रशासकों को निज़ाम कहा जाता था। हैदराबाद के आखिरी निजाम उस्मान अली खान थे। जिन्हें मनाने के लिए सरदार पटेल ने कई प्रस्ताव रखे, लेकिन निज़ाम इस बात पर अड़े रहे कि हैदराबाद को भारत से अलग रखा जाए।
इसके बाद निजाम को भारत में विलय के लिए तीन महीने का वक्त दिया गया। मगर 3 महीने बीत जाने के बाद भी उन्होंने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। वहीं सरदार पटेल की तरफ से भी यह साफ कर दिया गया था कि अगर निज़ाम भारत में विलय के लिए तैयार नहीं होते हैं तो उनके खिलाफ सैन्य कार्रवाई होगी। साल 1948 में आखिरकार वही हुआ। जब भारतीय सेना ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद में घुस गई। जिसमें हैदराबाद के आखिरी निजाम को सत्ता से अपदस्त कर दिया गया और हैदराबाद को भारत का हिस्सा बना लिया गया।
अभियान के दौरान व्यापक तौर पर जातिगत हिंसा हुई थी। इस अभियान के समाप्त होने के बाद नेहरू ने इस पर जांच के लिए एक कमेटी भी बनाई थी। जिसकी रिपोर्ट साल 2014 में सार्वजनिक हुई। अर्थात रिपोर्ट को जारी ही नहीं किया गया था। रिपोर्ट बनाने के लिए सुन्दरलाल कमिटी बनी थी। रिपोर्ट के मुताबिक इस अभियान में 27 से 40 हजार जाने गई थीं। हालांकि, जानकार ये आंकड़ा दो लाख से भी ज्यादा बताते हैं।
बता दें कि मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना के प्रभाव में हैदराबाद के निजाम नवाब बहादुर जंग ने लोकतंत्र को नहीं माना था। नवाब ने काज़मी रज्मी को जो की MIM (मजलिसे एत्तहुड मुस्लिमीन) का प्रमुख लीडर था। उसने राजकरास सेना बनाई थी। जो कि करीब 2 लाख की तादात में थी। मुस्लिम आबादी बढ़ाने के लिए उसने हैदराबाद में लूटपाट तक मचा दी थी। जबरन इस्लाम द्वारा हिंदू औरतों के रेप, सामूहिक हत्याकांड करने शुरू कर दिए थे। क्योंकि हिंदू हैदराबाद को भारत में चाहते थे। हैदराबाद के निजाम को पाकिस्तान से म्यांमार के रास्ते लगातार हथियार और पैसे की मदद मिल रही थी।
ऑस्ट्रेलिया की कंपनी भी उन्हें हथियार सप्लाई कर रही थी। तब सरदार पटेल ने तय किया कि इस तरह तो हैदराबाद भारत के दिल में नासूर बन जायेगा और तब आर्मी ऑपरेशन पोलो को प्लान किया गया। कहा जाता है कि ऑपरेशन के बाद में हर जगह सेना ने मुसलमानों को शिनाख्त कर-कर के मौत के घाट उतार दिया था। बता दें की उस दौर में हैदराबाद में सबसे ज्यादा पोलो के मैदान थे। इसीलिए सैन्य कार्रवाई को ऑपरेशन पोलो का नाम दिया गया था। इसमें निजाम की सेना के करीब 1400 जवान मारे गए। वहीं भारत के भी 66 जवान शहीद हुए थे। इस करारी हार के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण का ऐलान कर दिया और आखिरकार हैदराबाद का भारत में विलय हुआ।
भारतीय सेना का एक ऐसा ऑपरेशन जिसमें सेना को इस ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए अपने ही देश के एक राज्य में टैंक का इस्तेमाल करना पड़ गया था। ऑपरेशन ब्लू स्टार, 1 जून 1984 को शुरू हुआ था। वो समय जिसे आज भी पंजाब के इतिहास में बंटवारे के बाद सबसे बड़ा काला दिन नहीं बल्कि काला दौर माना जाता है। 3 जून को भारतीय सेना ने अमृतसर में घुसकर स्वर्ण मंदिर को घेर लिया। शाम तक कर्फ्यू लगा दिया गया और 4 जून को सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी। ताकि चरमपंथियों के हथियारों और असले का अंदाजा लगाया जा सके।
इंदिरा गांधी ने शाम होते-होते सेना को स्वर्ण मंदिर परिसर में घुसने और ऑपरेशन ब्लू स्टार शुरू करने का आदेश दे दिया। जिसके बाद स्वर्ण मंदिर परिसर में भीषण खून-खराबा हुआ। सैन्य कमांडर केएस बराड़ ने माना कि चरमपंथियों की ओर से भी काफी तीखा जवाब मिला। वहीं अकाल तख्त पूरी तरह से तबाह हो गया। यहां तक कि स्वर्ण मंदिर पर भी गोलियां चलीं। कई सदियों में पहली बार एक दौर ये भी आया की वहां 6, 7 और 8 जून को पाठ तक नहीं हुआ। सिख पुस्तकालय भी जलकर खाक हो गया था।
आपरेशन ब्लू स्टार भारतीय सेना द्वारा 3 से 6 जून 1984 को अमृतसर के हरिमंदिर साहिब परिसर को ख़ालिस्तान समर्थक जनरैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों से मुक्त कराने के लिए चलाया गया अभियान था। पंजाब में भिंडरावाले के नेतृत्व में अलगाववादी ताकतें सशक्त हो रही थीं जिन्हें पाकिस्तान से समर्थन मिल रहा था। साल 1978 में पंजाब में हिंसा की शुरुआत हुई थी। उसी समय सिख धर्म प्रचार संस्था के प्रमुख जरनैल सिंह भिंडरांवाले का नाम चर्चा में आया। बैसाखी वाले दिन यानी कि 13 अप्रैल को भिंडरावाले के समर्थकों की निरंकारियों से झड़प हुई। भिंडरावाले के 13 समर्थक मारे गए और इस घटना ने भिंडरावाले का नाम अचानक सुर्खियों में ला दिया गया।
1981 के बाद जब पंजाब में हिंसक गतिविधियां बढ़ने लगीं तो भिंडरांवाले के खिलाफ लगातार हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने के आरोप लगने लगे। लेकिन पुलिस का ये कहना था कि उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं। वहीं, अप्रैल 1983 में पंजाब पुलिस के उप महानिरीक्षक एएस अटवाल की दिन दिहाड़े हरमंदिर साहिब परिसर में गोलियां मारकर हत्या कर दी गई। ऐसी घटनाओं से पुलिस का मनोबल लगातार गिरता चला गया।
जिसकी वजह से पंजाब में स्थिति बिगड़ती चली गई। पंजाब की बिगड़ती व्यवस्था देख इंदिरा गांधी सरकार ने पंजाब में दरबारा सिंह की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। बता दें की 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार से तीन महीने पहले तक हिंसक घटनाओं में मरने वालों की संख्या 298 हो चुकी थी। इसके साथ ही भारत सरकार के श्वेतपत्र के मुताबिक, ऑपरेशन ब्लू स्टार में 83 सैनिक मारे गए और 249 घायल हुए। इसी श्वेतपत्र के अनुसार, 493 चरमपंथी और आम नागरिक मारे गए, 86 घायल हुए और 1592 को गिरफ़्तार किया गया। लेकिन इन सब आंकड़ों को लेकर अब तक विवाद चल रहा है। सिख संगठनों का कहना है कि मरने वाले निर्दोष लोगों की संख्या हजारों में है। हालांकि भारत सरकार इसका खंडन करती आई है।
भारतीय सेना द्वारा चलाया गया ऑपरेशन कैक्टस लिली जिसे मेघना ब्रिज या क्रॉसिंग ऑफ मेघना के नाम से भी जाना जाता है। साल 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान 9 और 12 दिसंबर 1971 के बीच किया गया एक हवाई हमला ऑपरेशन था। यह भारतीय सेना और भारतीय वायु सेना ने मेघना नदी को पार करने और आशुगंज यानी कि भैरव बाजार में एक पाकिस्तानी गढ़ को पार करने और ढाका तक पहुंचने के लिए प्लान किया गया था। इस ऑपरेशन को आमतौर पर मेजर जनरल सगत सिंह के दिमाग की उपज माना जाता है। क्योंकि इसके बिना, भारतीय सेनाएं ढाका की घेराबंदी पूरी नहीं कर पातीं और शायद ये युद्ध और लंबा खिंच जाता।
पाकिस्तान ने बांग्लादेश में चलने वाले मुक्ति अभियान को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। इसका नतीजा था कि बांग्लादेश में हर रोज पाकिस्तान की सेना हजारों बेगुनाहों को मौत के घाट उतार रही थी। ऐसे में दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उन्होंने इस समस्या से निपटने के लिए तत्कालीन जनरल सैम मानिकशॉ को बुलाया था। उन्होंने जनरल सैम से पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश में मोर्चा खोलने और भारतीय सेना को दखल देना का आदेश दिया था। इस युद्ध में कुल दो चरण थे। पहला चरण आशुगंज की लड़ाई थी और वहीं दूसरे चरण में हवाई हमला शामिल था।
9 दिसंबर 1971 को भारत ने औपचारिक रूप से पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश में सेना को उतार दिया था। इसमें भारतीय सेना के साथ बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के जवान भी शामिल थे। भारतीय सेना की चौथी कोर और बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के सैनिकों को भारतीय वायु सेना ने मेघना नदी के उस पार बांग्लादेश के राजपुरा में उतारा था। पाकिस्तानी सेना इस गफलत में रही कि उसने मेघना नदी का पुल उड़ा दिया है और भारतीय सेना अब अंदर नहीं आ सकेगी। इस पुल को आज मेघना हेली ब्रिज के नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान की इस सोच का नतीजा उन्हें तब पता चला जब भारतीय जवानों ने बांग्लादेश में प्रवेश किया। जिसके बाद पाकिस्तान के जवानों को एक-एक करके भारतीय फौज पीछे खदेड़ती रही।
ऑपरेशन कैक्टस लिली और इस जंग की सबसे खास बात ये थी कि जिस लड़ाई को खत्म करने के लिए जनरल सैम ने दो महीने का समय मांगा था। उनकी रणनीति से उसको 7 दिनों के अंदर ही जीत लिया था। 16 दिसंबर को पाकिस्तान सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल AK नियाजी ने अपने 80 से अधिक सैनिकों के साथ भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष सरेंडर किया था। इस दौरान पाकिस्तान के सर्वोच्च अधिकारी ने अपनी पिस्तौल को भारतीय सेना के अधिकारी को सौंप दी थी।
भारतीय नौसेना का एक ऐसा ऑपरेशन जिसमें पाकिस्तान के कराची पोर्ट पर कई दिन तक आग की लपटें देखी गई थीं। इस ऑपरेशन का नाम ऑपरेशन ट्राइडेंट था। इस आपरेशन का नाम भगवान शिव के द्वारा धारण किए शस्त्र त्रिशूल पर रखा गया था। जी हां ट्राइडेंट का अर्थ है त्रिशूल। 3 दिसंबर 1971 को, जब भारतीय नौसेना के एक जहाज ने मुंबई पोर्ट छोड़ा। लेकिन नौसेना को इस बात का बिल्कुल भी कोई अंदाजा नहीं था कि पाकिस्तान की पनडुब्बी PNS हंगोर हमला करने के लिए इंतजार कर रही है। पाकिस्तानी पनडुब्बी उस वक्त हमले की ताक में घूम रही थी। उसी बीच उसके एयर कंडीशनिंग में कुछ दिक्कत हुईं और उन्हें समुद्र की सतह पर आना पड़ गया।
भारतीय नौसेना को उस दौरान इसका अंदाजा हुआ कि पाकिस्तानी पनडुब्बी दीव के तट के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही है। उस समय नेवी चीफ एडमिरल SM नंदा के नेतृत्व में ‘ऑपरेशन ट्राइडेंट’ का प्लान बनाया गया। पाकिस्तानी पनडुब्बी को नष्ट करने का जिम्मा एंटी सबमरीन फ्रिगेट INS खुखरी और कृपाण को सौंपा गया। टास्क की जिम्मेदारी 25वीं स्कॉर्डन कमांडर बबरू भान को दी गई थी। इसके बाद 4 दिसंबर 1971 को भारतीय नौसेना ने पाकिस्तान पर पहला हमला किया था। उसने यह हमला कराची में पाकिस्तानी नौसेना हेडक्वॉर्टर पर किया था। इस हमले में पाकिस्तान के गोलाबारूद सप्लाई शिप समेत कई जहाज तबाह कर दिए गए थे।
इस हमले में पाकिस्तान के ऑयल टैंकर को भी तबाह कर दिया गया था। बता दें कि भारतीय नौसैनिकों ने अपना पहला हमला निपट, निर्घट और वीर मिसाइल से किया था। इस हमले में पाकिस्तान के PNS खैबर, PNS चैलेंजर और PNS मुहाफिज को मिसाइल से तबाह कर पानी में डूबा दिया था। इतनी ही नहीं हमले में पाकिस्तान केराची पोर्ट में ऑयल डिपो पर हमला करने की वजह से आग की लपटें 60 किलोमीटर दूर तक दिख रही थीं।
भारतीय नौसेना के इस हमले की आग ऐसी थी कि कराची तेल डिपो लगातार 7 दिन तक जलता रहा था। इसे चाहकर भी 7 दिन तक नहीं बुझाया जा सका था। हालांकि इस हमले में भारतीय नौसेना का जहां INS खुखरी भी डूब गया था। उसके बाद जैसे ही ऑपरेशन खत्म हुआ भारतीय नौसैनिक अधिकारी विजय जेरथ ने एक संदेश भेजा और वो संदेश था, ‘फॉर पीजन्स हैप्पी इन द नेस्ट, रीज्वाइनिंग।’ जिसके बाद संदेश का जवाब आया था, ‘F 15 से विनाश के लिए इससे अच्छी दिवाली हमने आज तक नहीं देखी।’ इस युद्ध में मिली भारतीय नौसेना को ऐतिहासिक जीत की वजह से 3 दिसंबर को हर साल भारत इंडियन नेवी डे मनाता है।
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