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India News (इंडिया न्यूज), अजीत मेंदोला, नई दिल्ली: जंगलों में भीषण आग के चलते उत्तराखंड एक बार फिर सुर्खियों में है। इसी बीच चारों धाम की यात्रा भी शुरू हो गई। राज्य सरकार के लिए यह दो तरफा संकट है। एक तो यात्रा में जुटती भीड़ को संभालना तो दूसरी तरफ बढ़ती आग लगने की घटनाएं किसी चुनौती से कम नहीं है। अब सवाल यही उठता है कि पहाड़ों में आग की घटनाएं विकराल रूप क्यों ले रही है। दरअसल उत्तराखंड को राज्य बनाना अभिशाप साबित होता जा रहा है। राज्य बने 25 साल होने को जा रहे हैं,लेकिन मानव की गलतियों के चलते राज्य तमाम तरह की आपदाओं से जूझ रहा है। कोई भी राज्य सरकार रही हो उत्तराखंड का केवल दोहन किया गया। उसे संवारा नहीं गया। उत्तराखंड को बचाने का एक ही तरीका है उसे फिर से पुराने स्वरूप में लाया जाए। गांव आवाद कर पानी का भंडारण हो तभी पहाड़ जीवित होंगे।
कहने के लिए पूरा उत्तराखंड देव भूमि है,लेकिन हिंदू ही उस नगरी को गोवा की तरह आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं,मतलब अय्याशी के संसाधन बढ़ाए जा रहे हैं। गंगा और यमुना जैसी दर्जनों नदियों के किनारे या तो होटल माफियाओं के कब्जे में हैं या खनन माफियाओं के कब्जे में है। बिना अनुमति के नदियों के तटों और पहाड़ों पर तमाम होटल और रिसोर्ट बनाए जा रहे हैं। जिनमें अय्याशी ज्यादा होती है। कहने के लिए उत्तराखंड में शराब पर पाबंदी है,लेकिन सबसे ज्यादा शराब वहीं बिकती है। घूमने के नाम पर जो टूरिस्ट वहां आता है दुनिया भर का प्रदूषण करके चला जाता है। नदियों और सड़कों के किनारे,पहाड़ों पर शराब की बोतलें,खाली बीयर के केन और बोतल,प्लास्टिक की थैलियां, कूड़ा करकट बिखरा हुआ देखा जा सकता है। सत्तापक्ष और विपक्ष के सभी नेता जानते हैं पहाड़ के साथ क्या हो रहा है लेकिन जल्द ही करोड़ पति बनने की चाह में अधिकांश नेता पहाड़ को बर्बाद करने में जुटे हुए है।
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अचानक बाढ़, बादल फटना,जोशीमठ जैसे कई कस्बों में दरार आना तो चल ही रहा है। इनके साथ पहाड़ों का धधकाना ये घटनाएं अब आम हो गई हैं। 70 -80 के दशक में पहाड़ों को सबसे पहले वन माफिया ने निशाना बनाया। देवदार के पेड़ जो पर्यावरण के लिए जरूरी थे उन्हें काट दिया गया। पहाड़ नंगे होने लगे। इसके बाद कई कानून बने लेकिन प्रशासन की मिलीभगत से आज तक पेड़ों का कटान जारी है। इसके बाद वृक्षा रोपण के नाम पर पेड़ तो लगाए गए,लेकिन चीड़ की संख्या बढ़ा दी। चीड़ ने पहाड़ के पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। एक तो पहाड़ की नमी को खत्म कर दी। दूसरा आग लगने की घटनाएं चीड़ के पेड़ों के चलते बढ़ गई।
चीड़ के पत्ते जिन्हे उत्तराखंड में प्यूलू कहा जाता है तेजी से आग पकड़ते हैं। चीड़ का पेड़ जिससे लीसा निकलता है उससे भी आग तेजी से फैलती है। पेड़ों को बचाने के लिए चिपको जैसे कई आंदोलन हुए,लेकिन दूसरी ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। वृक्षारोपण के नाम पर जलागम जैसे कई विभाग खुले,विदेशों से तमाम फंड आए। लेकिन वृक्षारोपण के नाम पर भी लूट हुई। इसके बाद 2000 में राज्य बन गया। उसके बाद तो पहाड़ विकास के बजाए विनाश की तरफ बढ़ गया।
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पहली बड़ी भूल तो राज्य बनाना ही था। पहाड़ वालों को उम्मीद थी कि पहाड़ों पर ध्यान दिया जाएगा। लेकिन देहरादून को राजधानी बना पहला कुठाराघात पहाड़ पर किया गया। देहरादून और उसके आसपास के दूसरे शहर हरिद्वार ,ऋषिकेश में इतनी भीड़ बढ़ गई कि अब वहां पर भी दिल्ली वाले हालात हो गए। हर पहाड़ वासी पहाड़ छोड़ देहरादून या मैदानी शहरों में शिफ्ट होने लगा। इसी तरह कुमाऊ मंडल के मैदानी इलाकों में भीड़ बढ़ गई। पहाड़ों में चल रहे सरकारी कार्यालयों को देहरादून या कुमाऊ के मैदानी क्षेत्रों में शिफ्ट कर दिया गया। उत्तराखंड के नाम पर पहाड़ की जगह मैदानी शहर असल उत्तराखंड बन गए। पहाड़ छोड़ने की असल वजह थी रोजगार और सुविधाएं। पहाड़ों में सुविधा के नाम पर न तो अस्पताल हैं और ना ही रोजगार का कोई साधन। इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ खाली हो गए।
विकास के नाम पर पहाड़ों के साथ छेड़छाड़ होने लगी। आल वेदर रोड,पहाड़ों में ट्रेन,नदियों पर दर्जनों पावर प्रोजेक्ट विकास के नाम पर लगाए गए। इसके साथ खनन और होटल माफिया ने पहाड़ को अपनी चपेट में लिया। नतीजा 2013 में केदारनाथ में भीषण त्रासदी आई, बादल फटने जैसी घटनाएं बढ़ गई। जोशीमठ जैसे कस्बों में दरारें पड़ने लगी। क्योंकि पहाड़ में कुछ भी योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ।
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पहाड़ों में पहले भी आग लगती थी,लेकिन वह भयावह रूप नहीं लेती थी। उसकी सबसे बड़ी वजह होती थी गांव वाले सजग रहते थे,उनको मालूम होता था कि किस मौसम में क्या होता है। उस हिसाब से तैयारी रखते थे। जरा सी आग लगने पर गांव वाले सामूहिक रूप से उस पर तुरंत काबू पा लेते थे। लेकिन अब पहाड़ों में लोग ही नहीं बचे हैं। उनकी जगह व्यवसाहिक लोगों ने ले ली। मोज मस्ती करने जंगल जाते वहां पर उनकी एक भूल आग का रूप ले लेती। पौड़ी मुख्यालय के नजदीक देवदार का एक जंगल शिकारियों और शराबियों के चलते आग की भेंट चढ गया था। जंगल में शराब पी आग लगाने वाले भी आग की लपेट में आ गए थे। नैनीताल के जंगलों में लगी आग के पीछे भी असामाजिक तत्वों का हाथ सामने आया। घूमने के नाम पर कई पर्यटक भी ऐसी गलती करते हैं जो भीषण आग का रूप ले लेती है। यह आग जिस तरह से विकराल होती जा रही उसका सीधा असर हिमालय के ग्लेशियर पर भी पड़ रहा है। वैज्ञानिक चिंतित हैं। झीलों का टूटना बाढ़ आना सब बिगड़ते पर्यावरण का ही नतीजा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहाड़ पर ध्यान तो दिया लेकिन मूल समस्याओं पर ध्यान ही नहीं दिया गया। हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी की टीम में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जैसे कई अफसर पहाड़ी हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो सारी समस्याएं जानते हैं। क्योंकि उनकी पढ़ाई लिखाई उत्तराखंड से हुई है। मोजूदा सीडीएस चौहान भी उत्तराखंड से ही है। इसके बाद भी कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि आखिर पहाड़ क्यों खाली हो रहे हैं,त्रासदी और आग लगने की वजह क्या है। आल वेदर रोड तो बन गई लेकिन गांवों को जोड़ने वाली अधिकांश सड़कें आज भी बदहाल हैं। सुविधाओं के नाम पर गांवों में कुछ नही है। बिगड़ते पर्यावरण का असर यह हुआ कि 60% झरने सूख गए। झरनों का सूखना न तो पहाड़ के लिए और ना ही देश के लिए अच्छा है। झरनों के सूखने का सीधा असर नदियों पर पड़ा है। यही वजह है कि आज गंगा जमुना जैसी नदियों में पानी बहुत कम रह गया। बिगड़ते पर्यावरण के चलते बरसात में यही नदियां तबाई लाती है। पिछले साल हिमाचल और उत्तराखंड दोनो ने त्रासदी झेली।
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पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी हैं पेड़। पेड़ों को बचाने के लिए जरूरी है पानी। पेड़ बचेंगे पानी रहेगा तो पहाड़ों में नमी रहेगी। जब नमी रहेगी तो आग की घटनाएं कम होंगी। भुस्कलन और बाढ़ कम आएगी। पद्मश्री और पद्मविभूषण से सम्मानित पर्यावरणविद डा अनिल प्रकाश जोशी कहते है कि उनकी संस्था हेस्को ने कुछ पहाड़ी इलाके गोद लिए हैं जहां पर पिछले 35 साल से कोई आग नहीं लगी। डा जोशी कहते हैं कि यह बड़ा दुखद है कि पहाड़ों में कभी भी पानी संग्रहण करने की कोई कोशिश ही नही हुई। नदियों में तो पावर प्रोजेक्ट लगा दिए गए,लेकिन पहाड़ों पर ध्यान दिया।
जोशी कहते हैं कि अगर हर गांव में छोटे छोटे तालाब आदि बना बरसात में पानी एकत्रित किया जाए। या जहां पर नदियां हैं उनसे पानी लिफ्ट कर छोटे बड़े तालाबों में पानी पहुंचाया जाए तो उससे पहाड़ों में नमी बनी रहेगी। झरने कम सूखेंगे। नमी के चलते आग कम फैलेगी। लेकिन दुःख की बात यह है पहाड़ों में गांव खाली हो गए हैं। पहले गांव वाले पहाड़ पर नजर रख एक तो आग को नहीं फैलने देते थे,दूसरा जंगलाता वालों के संपर्क में रह जंगलों में होने वाली गतिविधियों पर नजर रखते थे। लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता है। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जितनी छेड़छाड़ बढ़ेगी उतनी आपदाएं बढ़ेंगी। अब सरकार और हम को तय करना है कि प्रकृति को बचाना या फिर विकास के नाम पर पहाड़ को खतरे में डालना है।
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