स्टेनोग्राफर से सत्ता के गलियारों तक
आरके धवन ने अपने करियर की शुरुआत 1962 में ऑल इंडिया रेडियो में एक साधारण स्टेनोग्राफर के रूप में की थी। उस समय उन्हें शायद ही यह एहसास होगा कि एक दिन वह देश के सबसे ताकतवर नेताओं के सबसे करीबी होंगे। 1962 के न्यूयॉर्क वर्ल्ड फेयर के दौरान जब इंदिरा गांधी भारतीय बूथ की प्रमुख थीं, तब उनका और धवन का संपर्क हुआ। इस संपर्क ने एक दीर्घकालिक और विश्वासपूर्ण रिश्ते की नींव रखी, जो ताउम्र चलता रहा।
धवन की निष्ठा और समर्पण का आलम यह था कि वह 22 वर्षों तक इंदिरा गांधी के साथ रहे और कभी छुट्टी नहीं ली। वह हमेशा इंदिरा गांधी के साथ होते, चाहे वह उनकी शासकीय जिम्मेदारियों के दौरान हों या निजी मामलों में। उनके और इंदिरा गांधी के बीच यह सघन संबंध एक मिशाल बन गया था, और इंदिरा गांधी के हर फैसले और कदम में धवन का योगदान महत्वपूर्ण था।
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भरोसे का अनमोल रिश्ता
जैसे-जैसे इंदिरा गांधी का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा, वैसे-वैसे आरके धवन का भी महत्व बढ़ता गया। इंदिरा गांधी के साथ उनकी नजदीकी इस हद तक बढ़ गई थी कि कई बार महत्वपूर्ण संदेशों को भी वे ही मध्यस्थ के रूप में भेजते थे। नेताओं, मंत्रियों, और मुख्यमंत्रियों से इंदिरा गांधी के संदेश धवन ही पहुंचाते थे और उनकी कही बात को इंदिरा गांधी बिना किसी शंका के मान लेती थीं। इस स्तर पर धवन का कद इतना बढ़ चुका था कि इंदिरा गांधी के आसपास के हर व्यक्ति को उनका सम्मान करना पड़ता था।
हालांकि, यह बढ़ता हुआ कद कुछ लोगों को नागवार गुजरा और कई ने धवन की अहमियत को कम करने की कोशिश भी की, लेकिन हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी। इंदिरा गांधी की हत्या के वक्त भी धवन उनसे कुछ ही दूरी पर थे, और वह एकमात्र व्यक्ति थे जो पूरी घटना के गवाह थे, लेकिन उनकी कड़ी निष्ठा और ईमानदारी ने उन्हें हमेशा एक अपार सम्मान दिया।
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संजय गांधी के करीबी
इंदिरा गांधी के साथ-साथ आरके धवन का संबंध उनके बेटे संजय गांधी से भी घनिष्ठ था। धवन ने संजय को राजनीति में प्रमोट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने संजय को कांग्रेसी नेताओं से मिलवाया, उनकी सूझ-बूझ की सराहना करने का प्रयास किया, और धीरे-धीरे संजय गांधी भारतीय राजनीति का अहम हिस्सा बन गए।
धवन ने संजय गांधी के लिए प्रधानमंत्री आवास में एक अलग फोन भी लगवाया था, जिससे संजय सीधे मुख्यमंत्रियों से संवाद कर सकते थे। उस समय यह मान लिया गया था कि संजय की बातों में इंदिरा गांधी की सहमति ही होगी, और यही धवन का प्रभाव था।
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इमरजेंसी के दौर में धवन की मजबूती
इमरजेंसी के दौरान जब बहुत से लोग डर के मारे झुके, आरके धवन ने अपने विश्वास और निष्ठा से कोई समझौता नहीं किया। उन्हें इंदिरा गांधी के खिलाफ गवाही देने के लिए दबाव डाला गया था, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। यह एक आदर्श स्थिति थी, जहां धवन ने अपने कर्तव्यों को कभी अपने निजी लाभ से ऊपर रखा। यही कारण था कि जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जांच एजेंसियों ने उन्हें घेरा, तो उनका नाम एक गवाह के रूप में सामने आया क्योंकि वह हमेशा इंदिरा गांधी के साथ थे।
गाँधी परिवार के लिए अनमोल रतन बन गए थे धवन
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद धवन कुछ समय के लिए अलग-थलग पड़ गए थे, और राजीव गांधी ने भी उनसे दूरी बना ली थी। लेकिन, बोफोर्स विवाद में राजीव का नाम जुड़ने के बाद, वह एक बार फिर धवन से संपर्क करने लगे। इसके बाद धवन ने राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव और सोनिया गांधी के साथ भी करीबी संबंध बनाए रखा।
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सोनिया गांधी के लिए, धवन उस वक्त एक बड़े भरोसेमंद व्यक्ति बन गए जब कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के दौरान पीए संगमा ने सोनिया के विदेशी मूल पर सवाल उठाए। धवन ने संगमा को न केवल टोकते हुए सोनिया का पक्ष लिया, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस के सभी नेता सोनिया के साथ हैं। इस घटना ने सोनिया गांधी के मन पर गहरा असर छोड़ा और वह धवन के प्रति और भी अधिक विश्वास करने लगीं।
निजी जीवन और परिवार
आरके धवन का निजी जीवन बहुत साधारण था। उनका कोई अपना परिवार नहीं था, और वह अपनी पूरी जिंदगी इंदिरा गांधी और गांधी परिवार के लिए समर्पित कर चुके थे। हालांकि, 74 साल की उम्र में उन्होंने अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी निजी फैसले को लिया और अचला मोहन से विवाह किया, जिनके साथ वह कई वर्षों से जानते थे। यह विवाह धवन के जीवन के एक अलग पहलू को दर्शाता है, जो राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन से अलग था।
आरके धवन का जीवन एक उदाहरण है कि कैसे समर्पण, मेहनत और निष्ठा से कोई व्यक्ति सत्ता के गलियारों में अपनी अहमियत बना सकता है। इंदिरा गांधी के करीबी सहयोगी के रूप में उनका योगदान न केवल उनके व्यक्तिगत संबंधों में था, बल्कि देश की राजनीति में भी गहरा असर छोड़ने वाला था। उनका नाम भारतीय राजनीति के इतिहास में हमेशा एक महत्वपूर्ण शख्सियत के रूप में याद किया जाएगा।
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