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Lok Sabha Election 2024: भाजपा ने कश्मीर का मैदान क्यों छोड़ा- Indianews

BY: Shanu kumari • LAST UPDATED : April 23, 2024, 8:07 pm IST
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Lok Sabha Election 2024: भाजपा ने कश्मीर का मैदान क्यों छोड़ा- Indianews

Lok Sabha Election 2024

India News (इंडिया न्यूज),  अरविन्द मोहन | Lok Sabha Election 2024: अभी भी भाजपा की एक ही इकाई, जम्मू और कश्मीर प्रदेश अध्यक्ष पद पर विराजमान और कश्मीर के सवाल पर सबसे ज्यादा मजबूती से डटे रवींद्र रैना और उनके साथियों को तब खासी निराशा हुई जब भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री तरुण चुघ ने यह संदेश दिया कि हम घाटी की, अर्थात नवनिर्मित केंद्रशासित प्रदेश कश्मीर की तीनों सीटों से चुनाव नहीं लड़ेंगे।

बिना किसी लड़ाई के क्यों छोड़ दिया

भाजपा जम्मू इलाके की दो सीटों पर तो लड़ रही है और उसके उम्मीदवार पहले भी जीते थे। इनकी जीत में या इस बार की लड़ाई में रैना जी और उनके साथियों की प्रमुख भूमिका है हालांकि भाजपा उम्मीदवारों या पिछले सांसदों के कामकाज से पैदा नाराजगी भी उनको साफ झेलनी पड़ी थी। इनमें से जम्मू में अभी वोट पड़ना बाकी था जबकि ऊधमपुर में मतदान हो चुका था। घाटी में 7, 13 और 20 मई को मतदान होना है। रैना इस बात से भी हैरान थे कि देश के सभी 543 सीटों पर खुद या सहयोगियों के साथ चुनाव लड़ने की स्थिति में आकार और चार सौ पार का दावा करके भी भाजपा नेतृत्व ने आखिर कश्मीर की सीटों को बिना किसी लड़ाई के क्यों छोड़ दिया। अब वह चुनाव लड़ने वालों के बीच अपने ‘सहयोगी’ ढूंढ रही है जिसकी अभी तक कोई खबर नहीं है और चुनाव बाद सहयोगी बनाने का उसका तरीका तो सर्वज्ञात ही है।

कश्मीर का चुनावी फतह

मामला मामूली गिनती वाली तीन सीटों का नहीं है और ना घाटी में मुसलमान मतदाताओं के बहुसंख्यक होने का ही है। देश में असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल वगैरह राज्यों में कई ऐसी सीटें हैं जहां मुसलमान या अल्पसंख्यक बहुत बड़ी संख्या में हैं, कई केंद्रशासित प्रदेश ईसाई बहुल हैं। भाजपा वहां भी मुसलमानों के बीच के अपने विभिन्न तरह के विभाजनों या किसी सहयोगी दल के सहारे चुनाव लड़ती और जीतती भी रही है। और जाहिर तौर पर भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व को रवींद्र रैना और उनके साथियों द्वारा की गई चुनावी तैयारी पर भरोसा नहीं होगा और किसी भी आम नेता की तरह रैना यह मानते हों कि अब बस कश्मीर का चुनावी फतह करना ही है।

अक्टूबर 2019 में धारा 370 को समाप्त करने और राज्य को तीन हिस्सों अर्थात तीन केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने के बाद भाजपा की केंद्र सरकार ने वहां के विधान सभा की सीटों का पुनर्गठन भी कराया था(जिसे कई लोग हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र की सीटों की संख्या बढ़ाकर राज्य पर भाजपा शासन लाने की तैयारी बताते हैं)। और यह घोषित है कि लद्दाख को अलग रखकर बाकी दोनों क्षेत्रों को वापस एक करके एक प्रदेश बनाया जाएगा। अब लद्दाख और लेह परिषदों के स्थानीय निकाय में भाजपा की दुर्गति और हाल में सोनम वांगचुक के 21 दिन के उपवास ने उस इलाके में भाजपा की लोकप्रियता का अंदाजा दे दिया है।

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370 हटाने का फैसला

पर कश्मीर घाटी का मामला अलग है। यह भाजपा और उससे भी पहले जन संघ के लिए बुनियादी मसलों में एक रहा है। उसके एक नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी यहीं के सत्याग्रह के दौरान मरे थे। भाजपा लगातार कश्मीर को जोड़ने वाली धारा 370 को लेकर मुखर रही है और दूसरी तरफ इसे लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टियां भी अपना खेल करती रही हैं। अलगाववादी संगठन, पाकिस्तान और पैन-इस्लामिस्ट समूह भी इसे लेकर अपने अपने दम भर तलवारबाजी करते रहे हैं।

भारत सरकार भी काफी धन लुटाती रही और बाहर से भी ज्ञात अज्ञात स्रोतों से धन आता रहा। मरने वाले और नुकसान उठाने वाले ज्यादातर कश्मीरी लोग रहे हैं। बाहरी घुसपैठ हो, प्रायोजित आतंकवाद हो या सेना की अत्यधिक निगरानी और सख्ती, इसका दंश भी उन्हें ही झेलना पड़ा है। ऐसे में अक्टूबर 2019 में जब नया बनी भाजपा सरकार ने एक झटके में धारा 370 हटाने का फैसला किया तो काफी सारे लोगों को एक नई शुरूआत होती दिखी। फौज की भारी मजूदगी के बावजूद इस बार अपेक्षाकृत ज्यादा संयम बरता गया और विकास के कामों का खूब प्रचार हुआ।

सभा क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण का काम

यह सब होते हुए करीब पाँच साल हो गए। और धारा 370 की समाप्ति के समय किसी तरह से कश्मीरियों की राय न जानने समेत संसद में भी स्वस्थ बहस न कराने के चलते आरोपों से घिरी मोदी सरकार ने विकास और शांति पर ध्यान देने के साथ दूसरी तैयारियां भी की थीं। नेहरु-गांधी, अब्दुल्लाह और मुफ्ती परिवार को लूट और भ्रष्टाचार का अपराधी बताने का सिर्फ मौखिक अभियान ही नहीं चला गया, इडी और दूसरी एजेंसियों की जांच और छापा का सहारा भी लिया गया।

संसद में धारा 370 की समाप्ति पर सबसे तीखा और बड़ा बयान देने वाले और मुख्य मंत्री के रूप में अपने काम से राज्य में सम्मान रखने वाले गुलाम नबी आजाद को तोड़कर और कांग्रेस विरोधी संगठन बना कर अलग करने का काम भी हुआ। कई और लोगों का दल बदल हुआ। इंडिया गठबंधन पर पर्याप्त हमले हुए और नेशनल कांफ्रेस-कांग्रेस और पीडीपी के अलग-अलग होने का जश्न भी मना। विधान सभा क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण का काम हुआ। लद्दाख में पाँव जमाने के लिए भी काफी कुछ हुआ। सबसे यही लग रहा था कि भाजपा घाटी में भी चुनावी दंगल में उतरकर जोर आजमाएगी।

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चुनावी जीत पानी मुश्किल

सो जब तरुण चुघ ने रैना साहब को पार्टी का घाटी में चुनाव न लड़ने का फैसला सुनाया तो उनको सदमा लगना स्वाभाविक था। उनको ही क्यों कश्मीर पर अलग लाइन की वकालत करते रहे और लाठी जेल सहे देश भर के भाजपा कार्यकर्त्ताओं और समर्थकों को भी सदमा लगा होगा। कश्मीर संबंधी फैसले को लगभग सही मानने वाले गैर भाजपाई सचेत लोगों को भी इस अटपटे फैसले का तर्क समझ नहीं आया। और भाजपा तथा मोदी विरोधियों को तो यह सीधे सीधे दरकार भागना लगा।

ऐसे लोग भी हैं जिनका मानना है कि अगर यह बात विपक्ष ढंग से देश भर में फैलाए तो बाकी जगहों पर भी भाजपा को नुकसान होगा क्योंकि इसी चुनाव में ही नहीं 1952 के चुनाव से अब तक भाजपा/जनसंघ कश्मीर के सवाल को उठाकर देश के बाकी हिस्सों में राजनैतिक लाभ लेते रहे हैं। भाजपा के इस फैसले से ही नहीं वैसे भी घाटी में एक खामोश विरोध के माहौल से यह तो लग रहा था कि भाजपा के लिए यहां चुनावी जीत पानी मुश्किल होगी लेकिन भाजपा बिना लड़े मैदान छोड़ देगी इसका भरोसा रवींद्र रैना समेत किसी को नहीं होगा। और यह भाजपा भी मोदी और शाह वाली है जो संसद में पाक अधिकृत कश्मीर को भारत का हिस्सा घोषित कर चुके हैं।

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