होम / Mirza Ghalib Death Anniversary: 'हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है', शब्दों के साथ जादूगरी करते थे मिर्जा गालिब

Mirza Ghalib Death Anniversary: 'हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है', शब्दों के साथ जादूगरी करते थे मिर्जा गालिब

Rajesh kumar • LAST UPDATED : February 15, 2024, 3:00 am IST

India News(इंडिया न्यूज),Mirza Ghalib Death Anniversary: आज महान उर्दू और फ़ारसी शायर असद-उल्लाह बेग खान उर्फ़ “ग़ालिब” की पुण्य तिथि है। ग़ालिब मुग़ल साम्राज्य के अंतिम शासक बहादुर शाह ज़फ़र के समकालीन और दरबारी कवि थे। शायरी के बादशाह कहे जाने वाले उर्दू और फारसी भाषा के मुगलकालीन शायर गालिब अपनी उर्दू गजलों के लिए काफी मशहूर हुए। उनकी कविताओं और ग़ज़लों का कई भाषाओं में अनुवाद किया गया।

15 फरवरी 1869 को ग़ालिब का निधन हुआ

ग़ालिब मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के बड़े बेटे को शायरी की गहराइयाँ सिखाया करते थे। वर्ष 1850 में बादशाह ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क की उपाधि से सम्मानित किया। ग़ालिब का निधन आज ही के दिन यानी 15 फरवरी 1869 को हुआ था। पुरानी दिल्ली स्थित उनके घर को अब एक संग्रहालय में बदल दिया गया है।

ग़ालिब के बचपन का नाम ‘मिर्जा असदुल्लाह बेग खान’ था। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। गालिब ने 11 साल की उम्र में शायरी शुरू कर दी थी। तेरह साल की उम्र में शादी के बाद वह दिल्ली में बस गए। उनकी शायरी में दर्द की झलक मिलती है और उनकी शायरी से पता चलता है कि जीवन एक सतत संघर्ष है जिसका अंत मृत्यु पर होता है।

ग़ालिब सिर्फ शायरी के बेताज बादशाह नहीं थे। अपने मित्रों को लिखे गए उनके पत्र ऐतिहासिक महत्व के हैं। उर्दू साहित्य में ग़ालिब के योगदान को उनके जीवित रहते कभी इतनी प्रसिद्धि नहीं मिली, जितनी उनके इस दुनिया से जाने के बाद मिली।

गालिब की ये पंक्तियां आज भी काफी मशहूर हैं..

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता

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