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India News(इंडिया न्यूज), Lok Sabha Elections 2024: भारत के राजनीतिक परिदृश्य में समय-समय पर कई अप्रत्याशित चुनावी उलटफेर देखने को मिले हैं। बड़े-बड़े राजनीतिक दिग्गजों के पराजित होने से लेकर अनजाने चेहरों के विजयी होने तक, इन घटनाओं ने देश की राजनीति को नए सिरे से परिभाषित किया है। आज हम भारत के कुछ महत्वपूर्ण चुनावी उलटफेरों पर नजर डालते हैं।
साल 1951-52 के संसदीय चुनाव, भारत के लोकतांत्रिक सफर का एक नया मोड़ था। इस चुनाव में एक अनपेक्षित परिणाम ने पूरे देश को चौंका दिया। डॉ. भीमराव अंबेडकर, एक प्रतिष्ठित विद्वान और वंचितों के हितैषी, बॉम्बे नॉर्थ सेंट्रल निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे। अंबेडकर के खिलाफ कांग्रेस के नारायण सदोबा काजरोलकर, कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा के उम्मीदवार मैदान में थे। अंबेडकर का समर्थन केवल समाजवादी पार्टी के अशोक मेहता ने किया, जबकि सीपीआई के एसए डांगे ने उनके खिलाफ जोरदार प्रचार किया था । इस चुनाव में अंबेडकर को 15,000 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। यह पराजय अंबेडकर जैसे महान व्यक्तित्व के लिए एक बड़ा झटका था , जिन्होंने बाद में राज्यसभा के माध्यम से संसद में प्रवेश किया। यह चुनाव दिखाता है कि जनता का मत अप्रत्याशित हो सकता है और लोकप्रिय नेता भी चुनाव हार सकते हैं।
1957 में बलरामपुर से पहली बार संसद सदस्य बने अटल बिहारी वाजपेयी को 1962 के चुनाव में कांग्रेस की सुभद्रा जोशी ने हरा दिया। वाजपेयी को 1984 में दूसरी बार हार का सामना करना पड़ा, जब कांग्रेस के माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर सीट से उन्हें पराजित किया। यह हार तब हुई जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में पहली बार लोक सभा चुनाव हो रहे थे। इस चुनाव में भाजपा को केवल दो ही सीटें मिलीं, जिससे पार्टी को अपने नेतृत्व में बदलाव की जरूरत पड़ी। 1986 में लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष के पद को संभाला और पार्टी को फिर से खड़ा करने की चुनौती स्वीकार की। आडवाणी ने तीन अलग-अलग कार्यकालों में सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष पद पर रहते हुए पार्टी की ताकत को फिर से बहाल किया।
1984 के लोकसभा चुनावों में दो महत्वपूर्ण उलटफेर देखने को मिले। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने अपने राजनीतिक करियर में 10 लोकसभा चुनाव जीते, लेकिन एक बार उन्हें हार का भी सामना करना पड़ा। इस चुनाव में 29 वर्षीय नवागंतुक ममता बनर्जी ने प्रमुख कम्युनिस्ट नेता को 20,000 से अधिक वोटों से पराजित किया। ममता बनर्जी उस समय लोकसभा में सबसे कम उम्र की सांसद बनीं। हालांकि, वामपंथी शासन को समाप्त करने में उन्हें 27 साल का लंबा संघर्ष करना पड़ा।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, अपने दिवंगत पति के निर्वाचन लोकसभा क्षेत्र रायबरेली चुनाव लड़ा और 55% से अधिक वोट प्राप्त किए। 1969 के कांग्रेस विभाजन के बावजूद, 1971 में उन्होंने अपने प्रदर्शन में सुधार किया और 66% से अधिक वोट प्राप्त किए, जिससे उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के उम्मीदवार राज नारायण को 1.1 लाख वोटों से हराया। लेकिन इस जीत के साथ विवाद भी जुड़ गया । राज नारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें इंदिरा पर चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया गया। 12 जून 1975 को न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा को चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी ठहराया और राज नारायण को विजेता घोषित किया। 24 जून को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन अपील लंबित रहने तक इंदिरा को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति दी। इसने इंदिरा गांधी को 25/26 जून की मध्यरात्रि में आपातकाल की घोषणा करने के लिए प्रेरित किया। 1977 के लोकसभा चुनाव, जो आपातकाल के 21 महीनों के बाद हुए, जिसमें राज नारायण, भारतीय लोक दल (बीएलडी) के टिकट पर चुनाव लड़ते हुए, इंदिरा को 55,202 वोटों से पराजित कर दिया था । यह पहला मौका था जब किसी गैर-कांग्रेसी उम्मीदवार ने इस निर्वाचन क्षेत्र से जीत हासिल की थी। इस परिणाम ने गांधी परिवार के प्रभाव को चुनौती दी और दिखाया कि जनता किसी भी प्रमुख नेता को जवाबदेह ठहरा सकती है।
1977 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव हुआ। भारतीय लोक दल के उम्मीदवार रविंद्र प्रताप सिंह, ने 176,410 वोट प्राप्त कर कांग्रेस के संजय गांधी को 75,844 वोटों के अंतर से हराया। सिंह की जीत ने कांग्रेस की निरंतर बहुमत प्राप्ति को चुनौती दी और दिखाया कि मतदाता कांग्रेस के वर्चस्व को अस्वीकार कर अन्य राजनीतिक दलों का भी समर्थन कर सकते हैं।
1984 के चुनाव में, आंध्र प्रदेश के हनमकोंडा क्षेत्र में एक और अप्रत्याशित घटना घटी। इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में पूर्व गृह मंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव को भाजपा के चेंदुपटला जंगा रेड्डी ने 54,000 वोटों के अंतर से हराया। यह अप्रत्याशित परिणाम राव के राजनीतिक पतन की शुरुआत थी, और दिखाता है कि अनुभवी नेता भी चुनावी राजनीति की अनिश्चितताओं से अछूते नहीं हैं। राव की हार विशेष रूप से आश्चर्यजनक थी क्योंकि उन्होंने पिछले सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और कांग्रेस पार्टी ने उस चुनाव में भारी जीत हासिल की थी।
2019 के चुनाव में, अमेठी, जो गांधी परिवार का गढ़ मानी जाती थी, इस क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव देखा गया। भाजपा की केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी को 55,120 वोटों के अंतर से हराया। ईरानी की जीत, जिन्होंने 4,68,514 वोट प्राप्त किए, जबकि राहुल गांधी को 4,13,394 वोट मिले, यह भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण सफलता थी। यह जीत ईरानी की पांच साल की मेहनत का परिणाम थी, जिसने उन्हें स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ने में मदद की। इस चुनावी उलटफेर ने न केवल गांधी परिवार के घटते प्रभाव को उजागर किया, बल्कि यह भी दिखाया कि भाजपा सही रणनीति और समर्पण के साथ लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक गढ़ों को भी भेदने में सक्षम है।
1984 के लोकसभा चुनाव, जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंदिरा) ने राजीव गांधी के नेतृत्व में बड़ी जीत हासिल की, में एक और महत्वपूर्ण उलटफेर हुआ। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, जो कांग्रेस के लिए चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को 1,87,895 वोटों के बड़े अंतर से हराया। बच्चन की यह पहली राजनीतिक विजय थी, जिसने दिखाया कि किस प्रकार प्रसिद्धि और धन का राजनीति में प्रभाव हो सकता है। कांग्रेस पार्टी ने बच्चन की प्रसिद्धि का उपयोग चुनावी लाभ के लिए किया, जो सफल साबित हुआ, लेकिन इसने राजनीति में प्रसिद्धि और धन के भूमिका पर भी सवाल उठाए।
2019 में, भोपाल में एक और राजनीतिक उलटफेर हुआ, जहां कांग्रेस पार्टी और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को भाजपा की प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने भारी अंतर से हराया। ठाकुर ने सिंह को 3,64,822 वोटों के अंतर से हराया। यह परिणाम कांग्रेस के लिए एक महत्वपूर्ण झटका था, जिसने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद से इस सीट पर अपनी पकड़ बनाए रखी थी। ठाकुर की जीत ने राज्य में भाजपा की बढ़ती ताकत और कांग्रेस पार्टी की घटती लोकप्रियता को उजागर किया।
इन सभी घटनाओं ने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी और यह दर्शाया कि जनता के मत में कितनी शक्ति होती है। चुनावी उलटफेर न केवल राजनीतिक दिग्गजों को झटका देते हैं, बल्कि नए चेहरों को उभरने का मौका भी देते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता और ताकत को दर्शाता है, जहां मतदाता ही सर्वोपरि होते हैं और वे किसी भी नेता या पार्टी को जवाबदेह ठहरा सकते हैं।
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