बीते कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर #SaveAravalli ट्रेंड कर रहा है. पर्यावरण कार्यकर्ता और सोशल एक्टिविस्ट अरावली को बचाने के लिए मुहीम चला रहे हैं. दरअसल, अरावली रेंज, जो दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत प्रणालियों में से एक है, खनन, शहरी विस्तार, कृषि और नीतिगत बदलावों के कारण तेजी से खराब हो रही है. और सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर को अरावली पर दिए गए आदेश, जिसमें 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली न मानने और खनन का आदेश दिया गया था, ने विवाद को और बढ़ा दिया है.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा है कि अरावली पहाड़ियों पर उसका 20 नवंबर का आदेश अगली सुनवाई की तारीख तक लागू नहीं किया जाएगा, जिससे फिलहाल निर्देशों पर रोक लग गई है. सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इस मामले की आगे की सुनवाई 21 जनवरी, 2026 को होगी.
कितने खतरे में है अरावली?
प्राचीनतम पर्वत शृंख्ला अरावली पहाड़ी भू-आकृतियों की सुरक्षा जलवायु परिवर्तन, खनन और निर्माण कार्य से प्रभावित हो रही है. सैटेलाइट डेटा का उपयोग करके किए गए 44 साल के एक अध्ययन में 2059 तक अरावली के काफी जंगलों के समाप्त होकर उनके बस्तियों में बदलने का अनुमान लगाया गया है, जिससे भारत में तीव्र जलवायु परिवर्तन और राजस्थान के भूजल रिचार्ज जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को खतरा पहुंचने की संभावना है. नवीनतम कवरेज इस बात पर जोर देता है कि यदि मौजूदा रुझान जारी रहे, तो एक ही जीवनकाल में हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले अरावली के जंगल बस्तियों में बदल सकते हैं.
पर्यावरण विज्ञान विभाग के आलोक राज और प्रोफेसर लक्ष्मीकांत शर्मा के नेतृत्व में अरावली पर एक अध्ययन किया गया. इस अध्ययन में 1975 से 2019 के बीच के 44 वर्षों के उपग्रह डेटा और मशीन लर्निंग आधारित भूमि परिवर्तन मॉडल का उपयोग करके यह पता लगाया गया है कि पहले से क्या नष्ट हो चुका है और अगले चार दशकों में क्या लुप्त होने की संभावना है.
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष
ऐतिहासिक परिवर्तन (1975-2019): 1975-2019 के बीच अरावली क्षेत्र में लगभग 5,773 वर्ग किमी जंगल का नुकसान हुआ, जो अरावली वन क्षेत्र का लगभग 7.6% है, जिसका एक बड़ा हिस्सा बंजर भूमि या बस्तियों में बदल गया है. ये बदलाव रेंज के ऊपरी, मध्य और निचले क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों के लगातार दबाव का संकेत देते हैं.
भविष्य का अनुमान (2059 तक): सैटेलाइट डेटा का अनुमान है कि यदि रुझान जारी रहे तो लगभग 16,361 वर्ग किमी जंगल (वर्तमान वन क्षेत्र का लगभग 21.6%) सीधे बस्तियों में परिवर्तित हो सकता है, जिसमें यह संपूर्ण क्षेत्र जंगल से बस्ती और बस्ती से बंजर में परिवर्तित हो जायेगा. यह डेटा दिल्ली-एनसीआर से उदयपुर और सिरोही तक फैले पारिस्थितिक गलियारे के संभावित नाटकीय विखंडन का संकेत देता है.
जोखिम में पारिस्थितिक तंत्र: अरावली में वन क्षेत्र के नुकसान से जलवायु विनियमन, वॉटर रिचार्ज, मृदा स्थिरीकरण और आवास कनेक्टिविटी कमजोर होगी. राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात की जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण में अरावली महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे इसके विनाश से इन क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र में बड़ा परिवर्तन आ सकता है.
नई परिभाषा और सुरक्षा पर संकट
अरावली पर्वत श्रृंखला की उम्र को अक्सर प्रोटेरोजोइक बताया जाता है, कुछ स्रोत यहां की चट्टानों को लगभग 2.5 अरब साल पुराना बताते हैं, जो प्राचीन भूवैज्ञानिक विशेषताओं के रूप में उनके महत्व का संकेत देता है. यह प्राचीन पर्वत श्रेणियां सहस्राब्दियों से गुजरात, राजस्थान और दिल्ली की जलवायु व जैव विविधता का संरक्षण कर रही हैं. इन पहाड़ियों पर अवैध खनन और निर्माण कार्य इसकी संरचना और अस्तित्व को नुकसान पहुंचा रहा है.
इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर को अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की एक समान परिभाषा स्वीकार कर ली थी और विशेषज्ञों की रिपोर्ट आने तक दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैले इसके क्षेत्रों के भीतर नए खनन पट्टे जारी करने पर रोक लगा दी थी. समिति ने सिफारिश की थी कि “अरावली पहाड़ी” को निर्दिष्ट अरावली जिलों में स्थित किसी भी भू-आकृति के रूप में परिभाषित किया जाएगा जिसकी ऊंचाई स्थानीय भू-आकृति से 100 मीटर या उससे अधिक हो और “अरावली पर्वत श्रृंखला” दो या दो से अधिक ऐसी पहाड़ियों का समूह होगा जो एक दूसरे से 500 मीटर की दूरी के भीतर स्थित हों.
इस नई परिभाषा का पर्यावरणविदों और कई अन्य कार्यकर्ताओं ने विरोध शुरू कर दिया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर भी अरावली बचाओ की मुहिम शुरू हो गयी.
हालांकि लोगों के बढ़ते किरोध के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली पहाड़ियों की परिभाषा से संबंधित अपने पूर्व निर्देशों और एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी, यह कहते हुए कि संशोधित परिभाषा की गलत व्याख्या की जा सकती है और इससे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में अनियमित खनन को बढ़ावा मिल सकता है