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जातिगत जनगणना (Caste Census) की भी नए सिरे से मांग हो रही है। इसे इसके समर्थकों द्वारा समय की आवश्यकता बताया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर कोरोना (Covid 19 pandemic) के कारण अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है।
जाति जनगणना (Caste census) का अर्थ है जनगणना अभ्यास में भारत की जनसंख्या के जाति-वार सारणीकरण को शामिल करना। जो भारतीय जनसंख्या की एक दशकीय गणना है। 1951 से 2011 तक, भारत में प्रत्येक जनगणना में धर्म, भाषा, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आदि सहित डेटा के साथ-साथ दलितों और आदिवासियों की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की आबादी को प्रकाशित किया गया है।
हालांकि, इसने कभी भी ओबीसी (OBC), निचली और मध्यम जातियों की गिनती नहीं की, जो मंडल आयोग के अनुसार देश की आबादी का लगभग 52 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को छोड़कर अन्य सभी जातियों को सामान्य श्रेणी में गिना जाता है।
भारत में पहली जनगणना 1872 में शुरू हुई और आवधिक गणना 1881 में ब्रिटिश शासन के तहत हुई। तब से, जाति (Caste census) के आंकड़े हमेशा शामिल किए गए, हालांकि केवल 1931 तक।
द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल इंग्लैंड के साथ प्रशासनिक और वित्तीय मुद्दों के कारण कथित तौर पर 1941 की जनगणना के लिए जाति गणना को बाहर रखा गया था।
इस प्रकार, ओबीसी की संख्या 1931 के लिए उपलब्ध है, जब उनकी आबादी का हिस्सा लगभग 52 प्रतिशत पाया गया था।
उद्धव ठाकरे सरकार ने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। वहीं बिहार के सीएम नीतीश कुमार, झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन और ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक भी जाति जनगणना (Caste census) के पक्ष में हैं। भाजपा भी पार्टी के तौर पर इस मुद्दे के खिलाफ नहीं है। वह भी जातिगत जनगणना के विरोध में खड़ा नहीं दिखना चाहती। विपक्ष उस पर दबाव बनाता रहेगा।
जातिगत जनगणना राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। जातिगत (Caste census) आंकड़े न होने की वजह से बार-बार इस तरह के प्रयास नाकाम हो रहे हैं। पार्टियां अलग-अलग राज्यों में विभिन्न समुदायों से रिजर्वेशन का वादा कर अपना विस्तार करना चाहती हैं। विशेषाधिकारों को खत्म करने के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर मैपिंग करनी होगी, जिसके लिए जातिगत जनगणना बेहद जरूरी है।
ऊंची जातियों में जाति-आधारित लाभ नहीं हैं। इससे वह जाति विहीन दिखाई देती हैं। जब तक जाति की वजह से आए विशेषाधिकारों को खत्म कर ही हम जाति विहीन समाज की स्थापना कर सकेंगे, जहां सभी एक-समान होंगे।
केंद्र सरकार 2011 की जनगणना के 10 साल बाद भी डेटा का विश्लेषण नहीं कर सकी है। 130 करोड़ भारतीयों का जो डेटा 2011 में इकट्ठा किया गया था, वह पांच वर्षों तक सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के पास था।
डेटा में कई तरह की गड़बड़ियां हैं। नीति आयोग के उस समय के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक्सपर्ट कमेटी भी बनी थी। चूंकि कमेटी के अन्य सदस्यों का नाम तय नहीं हुआ और इस वजह से कभी मीटिंग ही नहीं हुई। इसलिए जनगणना में जुटाए आंकड़े जस के तस पड़े हैं। इन आंकड़ों के आधार पर कुछ भी नतीजे नहीं निकाले जा सकते।
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