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अरविन्द मोहन, नई दिल्ली :
गेहूँ की फसल बाजार मेँ आने लगी है और यह किसानोँ के लिए खुशी की बात है कि अचानक खुले बाजार मेँ उनका उत्पाद सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से ऊपर बिक रहा है। पर यह किसान आन्दोलन की सफलता नहीँ है। इसके पीछे युक्रेन युद्द के बाद दुनिया भर की मंडियों में गेहूं और मक्के की कीमत में आई तेजी है।
सौभाग्य की बात है कि हमारे गोदान गेहूँ और धान से भरे हुए हैँ और हम अब निर्यात बढाने की तैयारी मेँ हैँ। बाजार की आज की कीमत भी निजी आढतियोँ द्वारा निर्यात की सम्भावना देखकर बढाई खरीद के चलते ही है। पर यह कहानी का एक पक्ष ही है।
दूसरा पक्ष यह है कि जब महंगाई का शोर हो और थोक तथा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक ऊपर ही ऊपर भागे जा रहे हो तब गेहूँ और आटे की सम्भावित कीमत एक खौफ भी पैदा करती है। अगर चावल और आटा भी बीस-पचीस फीसदी महंगे हो गए तो क्या होगा। उधर इंडोनेशिया द्वारा पामोलिन और सूरजमुखी तेल निर्यात पर नई बन्दिशेँ लगने से पहले से ही महंगा हो गए खाद्य तेलोँ की कीमत बढने का खतरा सिर पर आ गया है। और जो महंगाई अभी सिर्फ नीम्बू की मांग और आपूर्ति में कमी से हंगामा मचा रही है वह खाने-पीने की अन्य चीजोँ पर असर आने से क्या करेगी।
यह सच है कि महंगाई पहली बार नहीं आई है और करोना तथा युक्रेन युद्ध ने परेशानियाँ बढाई हैँ। लेकिन हमारा ही नहीँ दुनिया का रिकार्ड है कि महंगाई और मुद्रास्फीति के मामले मेँ हर सरकार बैकफुट पर होती है। हमारी यह सरकार और इसके समर्थक खास हैँ जो महंगाई के सवाल पर बिना पलक झपकाए सरकार को सही और महंगाई का सवाल उठाने वाले को देशद्रोही बताने मेँ लगे हैँ।
और कई लोगोँ को लगता है कि पूरा संघ परिवार महंगाई और बेरोजगारी जैसी परेशानियोँ से देश का ध्यान भटकाने के लिए अजान, हनुमान चालीसा, रामनवमी पर दंगा से लेकर न जाने क्या क्या कर रहे हैँ। ऐसा हो या नहीँ पर मीडिया की चर्चा भी इस धारणा को मजबूत करती है।
यह भी सच है कि महंगाई का लाभ भी समाज का एक वर्ग उठाता है। पर इस बार की महंगाई का खास चेहरा यह है कि इसका सबसे बडा लाभ सरकार उठा रही है। सारे आंकडे सन्देहास्पद हो गए हैँ। जिस थोक मूल्य सूचकांक पर घट-बढ के आधार पर महंगाई का अब तक पता चलता था उसे सरकार ने रद्दी की टोकरी मेँ डाल दिया है।
और जो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक बना है उसमेँ हमारे आपके उपभोग के वस्तुओँ का भारांक(वेटेज) सन्देहास्पद ढंग से ऊपर नीचे किया हुआ है। और लक्षित महंगाई वाली बहुत ही आधुनिक प्रणाली को पर्सी मिस्त्री, रघुराम राजन, जस्टिस श्रीकृष्ण और उर्जित पटेल की अगुवाई वाली कमेटियोँ ने लम्बी चर्चा और विचार मिमर्श से फाइनल किया था उसमेँ चार फीसदी का लक्ष्य सरकार जाने कब का भूल चुकी है और दो फीसदी प्लस-माइनस की जो भारी गुंजाइश छोडी गई थी,
आज उपभोक्ता मूल्य सूचकांक उस छह फीसदी को भी पार करके सात के करीब चला गया है। शोर मचना तभी शुरु हुआ है। असल मेँ जब खाने-पीने की चीजोँ पर महंगाई की मार अझेलनीय हो गई तब यह शोर मचा, वरना सोने-चान्दी, कपडे और पेट्रोलियम की महंगाई तो लगातार चलती ही रही है।
अकेले मार्च महीने मेँ सूचकांक लगभग एक फीसदी चढ गया। और यह तब हुआ जब सब्जियोँ का इसके पहले का हिसाब बहुत कम कीमत वाला था। खाद्य पदार्थोँ मेँ सबसे ज्यादा असर खाद्य तेलोँ और ढुलाई महंगा होने का हुआ। सरकार और उसके भक्तोँ के पास दन से युक्रेन युद्ध का नाम लेने और दुनिया भर मेँ महंगाई बढने का बहाना आ गया।
और इस महंगाई मेँ सरकार का दोष यह है कि उसने समय पर अपने लोगोँ को लाभ नहीं लेने दिया और मुद्रास्फीति की वृद्धि देखकर भी केन्द्रीय बैंक की ऋण नीति को भी ज्यादा से ज्यादा नरम रखा जिससे बाजार से भारी उधार जमा कर लेना सम्भव हो। आज अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने सूद की दर मेँ एक वृद्धि कर दी है और पांच और वृद्धि की तैयारी कर रहा है। ब्रिटेन ने भी तीन बार सूद की दर बढाई है लेकि हमारा रिजर्व बैंक चार फीसदी के लक्षित मुद्रास्फीति की सीमा पार होने के बाद भी सालोँ से आंख बन्द करके पैसा उठाए जा रहा है। उसका लक्ष्य 200 अरब डालर का उधार जुटाने का है।
जब मनमोहन राज मेँ पेट्रोलियम की कीमतेँ 120-125 डालर बैरल तक गई थी और यहां खुदरा कीमत बढी तथा सभी तरह के पेट्रोलियम उत्पातोँ की कीमत बाजार के हवाले की गई तो इसी नरेन्द्र मोदी और उनकी भक्त टोली ने बहुत शोर मचाया। और जब कीमतेँ बीस-पचीस डालर आ गई तो मोदी जी उसे अपने भाग्य से जोड रहे थे लेकिन उनके वित्त मंत्री अरुण जेतली आम उपभोक्ताओँ को लाभ देने की जगह सरकारी खजाने को भरने के लिए कर बढाते गए।
आज हालत यह है कि हर साल ढाई से पौने तीन लाख करोड रुपए ज्यादा का राजस्व सरकारी खजाने मेँ जा रहा है। इस दौर मेँ सरकार ने दूसरी गलती यह की कि मुद्रास्फीति की दर तय चार फीसदी से ऊपर आने पर भी(जबकि थोक मूल्य सूचकांक तो कब से दोहरे अंकोँ मेँ आकर महंगाई का शोर मचा रहा था) उसने रिजर्व बैंक के रेट मेँ बढोत्तरी न करके अपना पैसा बटोरू कार्यक्रम जारी रखा जबकि करोडोँ जमाकर्त्ताओँ की जमा पूंजी की कमाई आधी से से भी कम हो गई।
और यह मत पूछिएगा कि अकेले पेट्रोलियम पदार्थोँ से मोदी सरकार ने अब तक जो पन्द्रह लाख करोड से ज्यादा की अतिरिक्त रकम जुटाई है(और इसी चलते अर्थव्य्वस्था पर दबाव बढे हैँ) वे किस काम मेँ गए। वे सिर्फ लाभार्थी बनाने मेँ ही नहीँ भक्त बनाने के भी काम आए हैँ। आप नजर डालिए आपको आसपास ऐसे लाभार्थी और भक्त दोनोँ नजर आ जाएंगे।
लेखक वरिष्ठ संपादक हैं।
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