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India News(इंडिया न्यूज), India-Russia Relations: तीसरी बार प्रधानमंत्री का पद संभालते हुए वो पहली बार पीएम मोदी रूस के दौरे पर निकले हैं। आपको बता दें कि रूसी राष्ट्रपति ने पीएम मोदी को रूस आने का न्यौता दिया था जिसके बाद कल पीएम मोदी रूस के लिए रवाना हुए थे और कल रात्रि में दोनों नेताओं के बीच खूब बातचीत हुई और साथ में भोजन किया। इस बीच हम आपको बताने जा रहे हैं कि रूस और भारत के संबंध कैसे हैं? अकसर आप देखते होंगे कि बहुत से देश भारत को लेकर विवादित टिप्पणी करते हैं लेकिन रूस और भारत एक दूसरे के साथ हमेशा अच्छे रिश्ते में ही बंधे रहते हैं। आइए इस खबर में हम आपको बताते हैं कि दोनों देशों के रिश्तों में पहले के समय से लेकर क्या-क्या बदलाव आए हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार 8 जुलाई को दो देशों की तीन दिवसीय विदेश यात्रा पर रवाना हुए। यात्रा के पहले चरण में वह रूस की राजधानी मॉस्को पहुंचेंगे, जहां वह रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ द्विपक्षीय बैठक करेंगे। रूस में दो दिन बिताने के बाद पीएम मोदी ऑस्ट्रिया जाएंगे। लेकिन आज हम बात करेंगे रूस की, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पहली बार जा रहे हैं। इसके साथ ही सवाल उठता है कि जब दुनिया के देश पुतिन से दूरी बना रहे हैं, तो मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए रूस को ही क्यों चुना? इसका जवाब रूस और भारत की दशकों पुरानी दोस्ती में छिपा है, जो आज तक कमजोर नहीं हुई है। दोनों दोस्तों ने कई बार मुश्किल हालात में एक-दूसरे का साथ देकर इसे साबित भी किया है।
भारत और रूस के रिश्ते पहले से ही थे, लेकिन इसकी मजबूती की नींव 9 अगस्त 1971 को पड़ी, जब दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने नई दिल्ली में भारत-सोवियत संधि पर हस्ताक्षर किए। उस समय रूस को सोवियत संघ (USSR) के नाम से जाना जाता था। थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने इसे 20वीं सदी में भारत की विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण संधि बताया है, जिसने दक्षिण एशिया की राजनीति से लेकर उसके भूगोल तक को प्रभावित किया। इसने इस क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता साबित की।
1971 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) पर तनाव और उसी साल बाद में बांग्लादेश के निर्माण को देखते हुए, कई लोगों का मानना है कि भारत ने मुख्य रूप से इसी वजह से संधि पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन यह एक सतही तस्वीर है। श्रीनाथ राघवन ने अपनी किताब 1971: ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश में बेहतरीन शोध के जरिए इसका खंडन किया है। राघवन ने लिखा है कि संधि पर चर्चा इस पर हस्ताक्षर किए जाने से कुछ साल पहले ही शुरू हो गई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले 1969 में हुई थी।
शुरू में भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी संधि को लेकर झिझक रही थीं। दरअसल, 1969 में वह कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के साथ टकराव में उलझी हुई थीं। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी पूर्वी पाकिस्तान में संकट के दौरान भी इस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से झिझक रही थीं। वह मुख्य रूप से अमेरिका और चीन में संभावित नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को लेकर चिंतित थीं। लेकिन जुलाई 1971 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की चीन की गुप्त यात्रा और उसके बाद 17 जुलाई को अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ उनकी बातचीत ने स्थिति बदल दी।
किसिंजर ने भारतीय राजदूत एल.के. झा से कहा कि अगर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध में चीन हस्तक्षेप करता है, तो अमेरिका इसमें शामिल नहीं होगा। इससे दिल्ली में खतरे की घंटी बजी और इंदिरा गांधी ने भारतीय अधिकारियों से संधि पर आगे बढ़ने को कहा। किसिंजर की बीजिंग यात्रा के ठीक एक महीने बाद 9 अगस्त को संधि पर हस्ताक्षर किए गए। उस दौर के दस्तावेजों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि रूस के साथ भारत की संधि के पीछे चीन की प्रेरणा थी और रूस के लिए भी यही सच था। 1969 में उसुरी नदी सीमा पर चीन के साथ सोवियत संघ के टकराव के तुरंत बाद मास्को ने नई दिल्ली के सामने संधि का प्रस्ताव रखा था।
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