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(इंडिया न्यूज़): दिल्ली में श्रद्धा वाकर हत्याकांड के बाद एक बार फिर नार्को टेस्ट का मामला सामने आया है। क्योंकि यह जाचं जानलेवा भी है, इसलिए इस टेस्ट के लिए अलग तरह से प्रावधान है। ऐसे में सवाल उठता है कि देश में इस टेस्ट के लिए कानूनी प्रावधान क्या है। सुप्रीम कोर्ट की क्या गाइडलाइन है। इस जांच की प्रक्रिया क्या है। इस जांच में क्या जोखिम है।
1- यह जांच जानलेवा भी हो सकती है। थोड़ी सी चूक में जान भी जा सकती है। इसलिए जांच प्रक्रिया के लिए बाकायदा नियम है। इन नियमों के तहत नार्को टेस्क कराने के लिए व्यक्ति की रजामंदी जरूरी होती है। उसकी सहमति के बाद ही इस जांच की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। नार्को टेस्ट के लिए सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन भी है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि नार्को एनालिसिस, ब्रेन मैपिंग और पालीग्राफ टेस्ट बिना आरोपी के सहमति के नहीं किया जा सकता है।
2- सुप्रीम कोर्ट ने इस परीक्षणों की वैधता पर सवाल उठाने वाली याचिकाओं के जवाब में कहा था कि यह अवैध और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है। हालांकि, नार्को टेस्ट के दौरान दिए गए बयान अदालत में प्राथमिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किए जाते हैं। जब अदालत को कुछ परिस्थितियों में लगता है कि मामले के तथ्य और प्रकृति इसकी अनुमति दे रहे हैं, इस टेस्ट की अनुमति दी जाती है।
नार्को टेस्ट के दौरान पहले आरोपी को फारेंसिक साइंस लेबोरेटरी में भेजा जाता है। इस लेबोरेटरी में उसको इस जांच के बारे में विस्तार से बताया जाता है। इसके बाद जांचकर्ता का मनोवैज्ञानिक और जांच अधिकारी (आईओ) के साथ भी एक सत्र होता है। लैबोरेटरी के विशेषज्ञ आरोपी के साथ बातचीत करते हैं। इस दौरान आरोपी को टेस्ट की प्रक्रिया के बारे में बताया जाता है। इसके लिए उसकी सहमति ली जाती है। इसके बाद जब मनोवैज्ञानिक संतुष्ट हो जाते हैं कि आरोपी प्रक्रिया को पूरी तरह समझ गया है, तो उसकी डाक्टरी जांच की जाती है। इसके बाद नार्को टेस्क की प्रक्रिया शुरू होती है।
अब तक कई मामलों में अदालत ने नार्को टेस्ट की जांच की इजाजत दी है। खासकर वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के मामले में अब्दुल करीम तेलगी का नार्को टेस्ट हुआ था। इसके बाद फर्जी स्टांप पेपर घोटाले में आरोपी का भी नार्को टेस्ट किया गया था। वर्ष 2007 में निठारी हत्याकांड और 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के मामले में पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब पर नार्को टेस्ट का विशेष रूप से उपयोग किया गया था।
हाल के वर्षों में जटिल अपराधों की गुत्थी को सुलझाने के लिए जांच एजेंसियों ने नार्को टेस्ट पर जोर दिया है। नार्को टेस्ट से जांच एजेंसी का काम काफी आसान हो जाता है। जांच एजेंसियां आसानी से मुल्जिम तक पहुंच सकती है। दरअसल, कई बार अपराधी अपने अपराध से मुकर जाता है। ऐसे मे आरोपी से सच को उगलवाने के लिए इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है। यह टेस्ट इसलिए भी किया जाता है, जिससे आरोपी अदालत को गुमराह नहीं कर सके।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कैसे होता है ये टेस्ट। विशेषज्ञों के मुताबिक नार्को टेस्ट के दौरान मालिक्यूलर लेवल पर व्यक्ति के नर्वस सिस्टम में दखल दिया जाता है। आरोपी को नींद जैसी अवस्था में लाकर अपराध के बारे में प्रमाणिक सत्य प्राप्त करने की कोशिश की जाती है। इंजेक्शन की डोज व्यक्ति के लिंग, आयु, स्वास्थ्य और शारीरिक स्थिति के हिसाब से तय होती है। टेस्ट के दौरान, आरोपी की नाड़ी और ब्लड प्रेशर की लगातार निगरानी की जाती है। अगर रक्तचाप या पल्स गिर जाता है तो आरोपी को अस्थाई तौर पर आक्सीजन भी दी जाती है। नींद जैसी अवस्था में अपराध के बारे में प्रमाणिक सत्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
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