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इन संन्यासियों से छीन लिया जाता है भगवान को छूने का अधिकार, एक दंडी को बनाना पड़ता है अपना पूरा संसार

BY: Yogita Tyagi • LAST UPDATED : January 21, 2025, 2:20 pm IST
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इन संन्यासियों से छीन लिया जाता है भगवान को छूने का अधिकार, एक दंडी को बनाना पड़ता है अपना पूरा संसार

Who Are Dandi Sanyasis

India News (इंडिया न्यूज), Who Are Dandi Sanyasis: दंडी संन्यासी हिंदू धर्म में एक खास स्थान रखते हैं। वे अपनी तपस्या, त्याग और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध हैं और भारत की संत परंपरा में अद्भुत जीवनशैली के लिए पहचाने जाते हैं। दंडी संन्यासियों का जीवन पूरी तरह से साधना और ब्रह्म के अनुराग में समर्पित होता है।

कौन होते हैं दंडी सन्यासी?

दंडी संन्यासी वे लोग होते हैं, जो सनातन धर्म की अद्वैत वेदांत परंपरा से जुड़ते हैं। यह परंपरा शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी परंपरा का हिस्सा है। ‘दंडी’ शब्द ‘दंड’ से उत्पन्न हुआ है, जो एक पवित्र लकड़ी के डंडे को दर्शाता है, जो संन्यासियों के संयम, साधना और त्याग का प्रतीक होता है। इस डंडे का जीवन में गहरा आध्यात्मिक महत्व होता है, जिससे दंडी संन्यासी की शक्ति और ऊर्जा जुड़ी होती है।

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करनी पड़ती है कठोर तपस्या

दंडी संन्यासी बनने के लिए व्यक्ति को कठोर साधना और तपस्या से गुजरना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति, जो सांसारिक मोह-माया से मुक्त होकर केवल ब्रह्म की साधना करना चाहते हैं, वे दंडी संन्यासी बनने के लिए संकल्प लेते हैं। गुरु की अनुमति से वे अपने सांसारिक संबंधों और संपत्ति का त्याग करते हैं। इसके बाद, उन्हें एक पवित्र दंड दिया जाता है, जिसे वे जीवनभर अपने साथ रखते हैं और इसके माध्यम से आत्मसंयम, सत्य और धर्म का पालन करते हैं।

नहीं छू सकते भगवान की मूर्तियां

दंडी संन्यासियों के जीवन का एक प्रमुख पहलू यह है कि वे भगवान की मूर्तियों तक को नहीं छूते हैं। उनकी साधना इतनी पवित्र होती है कि वे किसी भी मूर्त रूप को छूने से बचते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि भगवान से मिलने का एक विशेष मार्ग शुद्ध ध्यान और तपस्या से ही हासिल किया जाता है।

नहीं किया जाता अंतिम संस्कार

मृत्यु के बाद, दंडी संन्यासी का अंतिम संस्कार सामान्य रूप से नहीं किया जाता। उनकी शारीरिक देह को किसी पवित्र नदी में प्रवाहित किया जाता है, जैसे गंगा, या फिर उन्हें समाधि दी जाती है। यह प्रक्रिया उनकी साधना के पूरे चक्र को पूरा करने के रूप में मानी जाती है, जो उनकी मृत्यु के साथ ही अंतिम रूप से पूर्ण होती है। इस प्रकार, दंडी संन्यासी न केवल अपने जीवन में तप और त्याग के प्रतीक होते हैं, बल्कि उनकी साधना और त्याग की परंपरा भारतीय संत परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

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