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India News (इंडिया न्यूज), Maharana Pratap Death Story: राजस्थान की वीर भूमि ने अनेक वीर और वीरांगनाओं को जन्म दिया है, लेकिन इनमें से महाराणा प्रताप का नाम अद्वितीय है। उनकी वीरता, साहस, और स्वाभिमान की गौरवमयी गाथा इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में जन्मे महाराणा प्रताप का जीवन संघर्ष, निडरता, और दृढ़ता का अद्भुत उदाहरण है। वे मेवाड़ के ऐसे शासक थे जिन्होंने जीवनभर मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से इनकार किया।
महाराणा प्रताप, जिन्हें बचपन में ‘कीका’ कहकर बुलाया जाता था, अपनी निडर प्रवृत्ति, अनुशासनप्रियता, और नेतृत्व क्षमता के लिए जाने जाते थे। वे बुजुर्गों और महिलाओं का सम्मान करते थे और ऊंच-नीच के भाव से परे थे। शस्त्र और शास्त्र दोनों में उनकी निपुणता थी। छापामार युद्ध कला में महारत हासिल करने वाले महाराणा प्रताप को इस युद्ध शैली का जनक भी कहा जाता है। उनकी शारीरिक क्षमता भी विलक्षण थी। 7 फीट लंबे और 110 किलोग्राम वजनी महाराणा प्रताप 72 किलो का छाती कवच, 81 किलो का भाला और 208 किलो की दो तलवारें लेकर चलते थे। उनके घोड़े चेतक की वफादारी और बलिदान की कहानी भी प्रसिद्ध है।
पिता उदयसिंह ने अपनी सबसे छोटी पत्नी के पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित किया, लेकिन मेवाड़ की जनता को यह स्वीकार नहीं था। जनता के आग्रह पर महाराणा प्रताप ने 1 मार्च, 1573 को मेवाड़ का सिंहासन संभाला। उस समय मुगल शासक अकबर अपनी ताकत और कूटनीति से अधिकांश हिंदू राजाओं को अपने अधीन कर चुका था। लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। यह उनकी स्वतंत्रता और स्वाभिमान का परिचायक है।
18 जून, 1576 को महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की विशाल और सुसज्जित सेना के सामने महाराणा प्रताप की सीमित संसाधनों वाली सेना थी। इसके बावजूद यह युद्ध किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा। महाराणा प्रताप और उनकी सेना ने मुगलों को जोरदार चुनौती दी। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप जंगलों में भटकते रहे और अपनी सेना को पुनर्गठित करते रहे।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप को परिवार सहित जंगलों में कठिन जीवन व्यतीत करना पड़ा। उन्होंने घास की रोटी खाई और कई बार भूखे भी रहे, लेकिन अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। एक घटना में जब उनके बेटे अमरसिंह की भूख शांत करने के लिए बनाई गई घास की रोटी को जंगली बिल्ली ले भागी, तो उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा। ऐसे समय में बीकानेर के कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने एक पत्र के माध्यम से उनका मनोबल बढ़ाया।
महाराणा प्रताप ने अंतिम समय तक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 29 जनवरी, 1597 को 57 वर्ष की आयु में धनुष की डोर खींचते समय आंत में चोट लगने के कारण उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु पर अकबर भी उनकी देशभक्ति और अटल स्वाभिमान को देखकर भावुक हो गया।
महाराणा प्रताप का जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत है। उन्होंने धन-दौलत, वैभव और आरामदायक जीवन को त्यागकर स्वाभिमान और स्वतंत्रता को चुना। मुगल दरबार के कवि अब्दुर रहमान ने लिखा है, “प्रताप ने धन-दौलत को छोड़ दिया लेकिन अपना सिर कभी नहीं झुकाया।” यहां तक कि अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की मां ने उनसे भारत दौरे के समय हल्दीघाटी की मिट्टी लाने की इच्छा जताई थी। यह मिट्टी उस वीर भूमि की गवाही देती है जहां महाराणा प्रताप ने अपने खून-पसीने से स्वतंत्रता की अलख जगाई।
महाराणा प्रताप की वीरता और स्वाभिमान की गाथा को जन-जन तक पहुंचाना हमारी जिम्मेदारी है। आज भी इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में उनकी महानता को उचित स्थान नहीं मिला है। उनकी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनकी गौरवमयी गाथा को हर व्यक्ति तक पहुंचाया जाए, ताकि उनके जीवन से प्रेरणा लेकर हम अपने देश और संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव विकसित कर सकें।
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