Identity Of Women Is Hard Work : कामकाजी महिलाएं अपना सपोर्ट सिस्टम बनाने के लिए कितना कुछ खर्च कर देती हैं। बच्चे के रखरखाव के लिए फुल टाइम मेड रखना बहुत मंहगा है। बच्चे को क्रेच छोड़ना भी अच्छी खासी मशक्कत है। उसे लाना ले जाना तो भारी पड़ता ही है। इस सेवा का भुगतान करना भी कोई कम मंहगा नहीं। उस पर ट्यूशन का भी खर्च है।
इसके साथ ही कपड़ों की धुलाई, ट्रांसपोर्ट और अन्य ढेर सारे खर्चे ऐसे हैं जिन्हें महिलाएं घर में रहने पर बचा सकती हैं। फिर अपनी मेंटीनेंस भी तो है। बाहर निकलने के लिए अच्छे कपड़े, फुटवियर और कॉस्मेटिक्स भी चाहिए। जितनी तनख्वाह है कमोबेश बाहर आने की लागत में ही खर्च हो जाती है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि वे अपनी भागदौड़ किसलिए बनाए हुए हैं? ऐसी कोई संतुष्टि तो है जो उन्हें इतना कुछ करने का हौसला देती है। दुनियाभर की मुश्किलों का सामना करने का साहस देती है।
एक सैटिसफैक्शन है कि सोसाइटी को कुछ दे रहे हैं। बारह महीने में अगर 120 बच्चों को भी अच्छी तरह से पढ़ा दूं तो लगता है कि कुछ प्राप्त किया है। बेहतर समाज के निर्माण में कोई भूमिका निभाई है। कहती हैं अध्यापिका सरिता दास। वह ग्यारह साल तक हाउसवाइफ रहीं, सभी कुछ ठीक था, लेकिन अपनी पहचान बनाने और समाज को अपनी सेवाएं देने के उद्देश्य से उन्होंने आखिर जॉब करने की ठान ली।
वह मानती हैं कि जब घर में थीं तब भी उनका खर्चा अच्छा चलता था और बाहर निकलने पर अब उनके खर्चे बढ़ गए हैं, लेकिन अपनी जिंदगी में आए बदलावों से वह खुश हैं। वह कहती हैं, मैंने देर से नौकरी शुरू की। जब बच्चा चार साल का हो गया तब। जॉब करने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी अहमियत बढ़ गई है। समाज में हाउसवाइफ को इतनी इज्जत नहीं मिलती जितनी मिलनी चाहिए। दूसरे, अब मेरे पास गॉसिप्स के लिए टाइम ही नहीं है।
घर में किचकिच, पति से आरग्यूमेंट और इनलॉज के साथ बहस करने का तो अब समय ही नहीं होता। काम करने का सैटिसफैक्शन भी है और घर में शांति का सुकून भी।
सरिता दास के बेटे ने फोटोग्राफी को अपना प्रोफेशन चुना है। बेटे के कैमरे और अन्य सामानों पर उन्हें लाखों खर्च करना पड़ा। इस खर्च को वह मैनेज कर पाई, कहीं से लोन नहीं लेना पड़ा, इसकी खुशी है उन्हें। बचों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाना हर माता-पिता की ख्वाहिश होती है। आमतौर पर घर के लाइफस्टाइल में बदलाव लाने और बच्चों के लिए ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं जुटाना भी महिलाओं की जॉब का सबब बनता है।
इसके लिए उन्हें कई तकलीफों का सामना करना पड़ता है, खर्चा भी बढ़ता है, लेकिन वे अपनी जॉब को रेगुलर रखती हैं। हां, जब उन्हें लगता है कि नन्हें बचे को उनकी ज्यादा जरूरत है तो वे ब्रेक लेने से भी परहेज नहीं करतीं। पुणे की एक कंपनी की रिक्रूटमेंट स्पेशलिस्ट ऋचा पटनायक कहती हैं, मुझे अपने छोटे बच्चे को क्रेच में छोड़ना पड़ता था। पास में कोई फैमिली मेंबर नहीं था उसकी देखभाल के लिए। बच्चे की मुश्किलें देखकर मुझे जॉब छोड़नी पड़ी, लेकिन घर पर मुझे अपनी जिंदगी अनार्थक लगने लगी।
मुझे महसूस होने लगा कि ज्यादा अर्न करेंगे तभी तो बचे को अच्छी शिक्षा दिलवा सकेंगे। उन्हें अच्छे स्तर की परवरिश दे सकेंगे। जब दिल्ली से मम्मी मेरे पास रहने के लिए आ गई, तब फिर से मैने नौकरी जॉएन कर ली। नो डाउट मुश्किलें बहुत हैं, लेकिन अपनी आइडेंटिटी भी तो है, जो दिल को खुशी देती है।
आर्थिक आजादी की चाहत भी महिलाओं को घर से बाहर निकलकर नौकरी के विकल्प ढूंढ़ने के लिए प्रेरित करती है। एक मार्केट रिसर्च फर्म के मुताबिक शहरी महिलाओं की आमदनी में वृद्धि हुई है।
यह तकरीबन दोगुनी हो गई है। रिसर्च के मुताबिक इस बदलाव का सीधा असर महिलाओं की हैसियत और घर के रखरखाव पर पड़ता दिख रहा है। महिलाएं अब पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से खरीददारी करती हैं।
उनकी खरीददारी महज अपने लिए नहीं, परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए भी होती है। समझदारी से खर्च करने का यह गुण भी उनमें पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। सरिता कहती भी हैं, जॉब में आने के बाद इकोनॉमिक इंडिपेंडेंस तो आई ही है। पहले हर छोटी से छोटी चीज के लिए पति से पैसे मांगने पड़ते थे।
छोटी-छोटी बात के लिए भी पूछना पड़ता था। अब खुद भी खरीद सकती हूं। कुछ ऐसा ही ऋचा भी कहती हैं, खर्चे बढ़े हैं तो माइनस-प्लस करेंगे, लेकिन जॉब करते हैं तो हाथ खुला रहता है। जब मन करे तब जो चाहो खरीद लो।
Identity Of Women Is Hard Work
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