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Lessons Needed from Germany on Real Election Issues चुनावों के असली मुद्दों पर जर्मनी से सबक की जरूरत

India News Editor • LAST UPDATED : October 2, 2021, 3:16 pm IST
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Lessons Needed from Germany on Real Election Issues चुनावों के असली मुद्दों पर जर्मनी से सबक की जरूरत

Lessons Needed from Germany on Real Election Issues

Lessons Needed from Germany on Real Election Issues

प्रसंगश:
आलोक मेहता
(आईटीवी नेटवर्क इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं)

इस सप्ताह कोलोन से एक पत्रकार मित्र का फोन आया। वह जानना चाहते थे कि इस बार उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में विधान सभा चुनावों की स्थिति क्या लग रही है और इनका असर क्या 2024 के लोक सभा चुनावों पर पड़ेगा ?मेरा उत्तर था – भारत में तो लगातार चुनावी उत्सव चलता रहता है, आप बताएं जर्मनी में तो रविवार को ही चुनाव हुआ है और सोलह साल बाद बदलाव के आसार दिखे हैं। किन मुद्दों पर लोगों के मन और वोट बदले हैं?

मेरी उत्सुकता इसलिए अधिक थी क्योंकि मैं कुछ वर्ष जर्मनी के रेडियो वाइस ऑफ जर्मनी में तीन साल संपादक रहकर आया था और बाद में भी जर्मन चुनावों के कवरेज के लिए जाता रहा हूं। फिर हाल के वर्षों में भारत और जर्मनी के आर्थिक तथा कई अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर सम्बन्ध अधिक मजबूत हुए हैं। जर्मन पत्रकार ने थोड़े व्यंग्य के साथ कहा कि जर्मनी में भारत की तरह जाति – धर्म के मुद्दों और समीकरणों पर चुनाव नहीं होते। इस बार तो पर्यावरण – जलवायु परिवर्तन, डिजलीकरण और आधुनिकीकरण के मुद्दों पर वोटिंग हुई है। पर्यावरणवादी ग्रीन्स पार्टी अपना चांसलर बनाने लायक बहुमत तो नहीं ला पाई है, लेकिन उसके बिना शायद कोई पार्टी – गठबंधन सरकार नहीं बना सकेगा।

इसके बाद हमारी लम्बी बात होती रही। लेकिन भारत के चुनावों पर उनका व्यंग्य सचमुच मुझे चुभता रहा। हम इस बात पर गौरव करते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और कश्मीर से कन्याकुमारी और सुदूर मिजोरम – अरुणाचल प्रदेशों के दुर्गम गांवों तक मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन चुनावी हथकंडों ने सम्पूर्ण चुनावों को दूषित किया हुआ है। जहां तक विचारधाराओं की बात है, बहुत हद तक भारत, यूरोप, अमेरिका में आर्थिक उदारवाद के कारण अधिकांश दलों की नीतियों में खास अन्तर नहीं रह गया है। इसलिए जर्मनी जैसे देश में तो दक्षिणपंथी मानी जाने वाली क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी उदारवादी समाजवादी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एस पी डी) से या पर्यावरणवादी ग्रीन्स पार्टी से भी समझौते और गठबंधन के लिए तैयार हो जाती है।

इसी तरह एस पी डी दक्षिणपंथी फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी (एफ डी पी) और ग्रीन्स के साथ गठबंधन को राजी है। इस कारण वहां सरकार बनाने अपना चांसलर (प्रधान मंत्री) बनवाने के लिए हफ़्तों तक जोड़ तोड़ चलने वाली हैं। हां वहां पैसे से खरीद फरोख्त की स्थिति नहीं है। असली समस्या प्राथमिकताओं की यानी प्रमुख मुद्दों की होती है। यह सुखद लोकतान्त्रिक स्थिति है कि मतदाताओं ने पर्यावरण सुरक्षा को सर्वाधिक महत्व दिया और ग्रीन्स पार्टी को देश की सरकार बनवाने में अहम भूमिका दिलवाई है। एक और मजेदार बात इस चुनाव में देखने को मिली कि चांसलर पद के दो उम्मीदवारों ने शाकाहार मांसाहार को वरीयता को भी अपने प्रचार का हिस्सा बनाया।

राष्ट्र की आत्मनिर्भरता तो सबके लिए बड़ा मुद्दा रहा है। लालफीताशाही से वहां भी लोग दुखी हैं। इसलिए पार्टियां और नेता इसे दूर करने के वायदे करते हैं। जर्मनी का पूर्वी हिस्सा लम्बे अर्से तक कम्युनिस्ट शासन में रहा है। लेकिन एकीकरण के बाद आज तो कम्युनिस्टों की उपस्थिति नगण्य सी हो गई है। चीन और रूस या क्यूबा जैसे कुछ देशों में कम्युनिस्ट सत्ता में हैं, लेकिन विश्व प्रतियोगिता में रूस चीन की आर्थिक नीतियां उदार हो चुकी हैं। भारत में प्रकृति के प्रति आदर सत्कार, सूर्य, चंद्र,पर्वत, नदी – वायु, जल को देवता भगवान् की तरह पूजा जाता है, लेकिन प्राकृतिक प्रकोप – बाढ़, भू स्खलन, प्रदूषण यानी पर्यावरण और ब्रिटिश राज से चली आ रही बाबुओं की लाल फीताशाही और पुराने कानून बदलने को सर्वोच्च प्राथमिकता वाले चुनावी मुद्दे नहीं बनाए जाते हैं। अधिकांश राजनीतिक पार्टियां जाति, धर्म के आधार पर उम्मीदवारों के चयन और उनके प्रभाव को महत्व देती हैं।

घोषणा पत्रों में विचार सिद्धांत वायदे बड़े बड़े होते हैं, लेकिन कई उम्मीदवारों को अपना पूरा घोषणा पत्र भी याद नहीं होता है और अगले चुनाव में उनको थोड़ी हेर फेर के साथ रख दिया जाता है। हाल के वर्षों में पानी बिजली मुद्दा बना तो बस मुफ्त देने पर जोर है। गरीबों के लिए पानी बिजली अनाज मकान शिक्षा स्वास्थय निश्चित रूप से निशुल्क देना जरुरी है, लेकिन कुछ वर्षों में उन्हें सही काम काज के लायक और आत्म निर्भर बनाना अधिक आवश्यक बनहिं है। पूर्वी जर्मनी सहित कई देशों के कम्युनिस्ट राज में आर्थिक प्रगति इसीलिए नहीं हो पाई, क्योंकि लोग सत्ता की दया और कथित श्रम अधिकारों के नाम पर आलसी हो गए थे। भारत में आजादी के बाद समाजवादी विचारों के प्रभाव का कुछ लाभ हुआ, लेकिन गरीब के बजाय मध्यम वर्ग और यहां तक कि सुविधा संपन्न लोग भी सरकार की निशुल्क या रियायतों का अधिक लाभ उठाते हैं। उन्हें घरेलु गैस या बिजली गरीब लोगों को मिलने वाले दामों पर चाहिए।

स्कूटर चलाने वाले और मसीर्डीज सहित अत्याधुनिक पांच करोड़ मूल्य की कार चलाने वालों को समान दाम पर पेट्रोल गैस सरकारी अस्पताल की सुविधा चाहिए। लेकिन पर्यावरण को मुद्दा बनाने के लिए यह शिक्षित वर्ग कोई तरजीह नहीं देता है। इसी तरह आर्थिक प्रगति, उद्योगों और रोजगार के लिए राजनीतिक पार्टियां अथवा अन्य संगठन बात करते हैं, लेकिन सड़क, पुल, कारखाने लगाने के लिए जमीन देने पर भयानक विरोध करते हैं। कई जगह वर्षों काम लटका रहता है।

आधुनिकीकरण में यदि औद्योगिक व्यावसायिक कम्पनियां देश विदेश तक प्रभावशाली होने लगे तो उनके लाभ को लेकर सरकारों पर प्रश्न उठाने लगते हैं। आखिर सरकार स्वयं कितने रोजगार दे सकती है। रोजगार मुद्दा बने तो फिर कौशल विकास यानी स्कील डेवलपमेंट के लिए स्थानीय चुनावों में आवाज क्यों नहीं उठाई जाती। यूरोप से मुकाबले के लिए कृषि कानूनों में सुधार हो तो एक वर्ग विरोध में खड़ा हो गया। तमन्ना किसान को हवाई जहाज में बैठने की रखवाएं और उससे बैलगाड़ी और आढ़तियों पर निर्भर रहने के लिए अभियान चलाएं।

बहरहाल, जर्मनी ही नहीं यूरोप, अमेरिका, जापान और खड़ी के देश बड़े पैमाने पर भारत में पूंजी लगा रहे हैं और लगाएंगे। कम से कम शेयर मार्केट तो यही संकेत दे रहा है। चुनाव होते रहें, लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब मतदाता और नेता भी अपनी सही प्राथमिकताएं रखेंगे, उन्हें मुद्दे बनाकर सफलता हासिल करेंगें।

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