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देश की सर्वोच्च अदालत ने पीरियड्स लीव से जुड़ी याचिका पर विचार करने से किया इंकार, जानें क्या है पूरा मामला

Priyanshi Singh • LAST UPDATED : March 7, 2023, 1:25 pm IST

Supreme Court On periods leave:आज पूरे दुनिया में महिलाओं के हकों को लेकर चर्चाए तेज हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस चर्चाओं ने महिलाओं के जीवन  में कुछ अच्छे बदलाव किए हैं। हालांकि बहुत सारी महिलाएं आज भी अपने होकों से वंचीत हैं। समाज में कुछ लोग महिलाओं को उपर उठाने में लगे हैं तो कुछ उनकी जींदगी को बत से बत्तर करने में लगे हुए हैं। ऐसे में देश की सर्वोच्च अदालत ने महिलाओं की पीरियड्स लीव देने से जुड़ी एक जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया है।

क्या है पूरा मामला

“ये केंद्र का मामला है इसके लिए बाल विकास मंत्रालय के पास जाइए” यह टिप्पणी देश की सर्वोच्च अदालत छात्राओं और कामकाजी महिलाओं को पीरियड्स लीव देने से जुड़ी एक जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार करते हुए की है। इस जनहित याचिका में सभी राज्यों के लिए मेंस्ट्रुअल लीव नियम बनाने की बात पर जोर दिया गया था। देश के मुख्य न्यायधीश डी. वाई. चंद्रचूड सहित तीन जजों की बेंच ने इस पर सुनवाई करने से ही इनकार कर दिया।

 “हम इस पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे”

मिली जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, “यह एक नीतिगत मामला है तो हम इस पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। नीतिगत विचारों को ध्यान में रखते हुए, यह उचित होगा कि अगर याचिकाकर्ता इसके लिए केंद्रीय महिला एवं बाल विकास से संपर्क करे।” इतना कहकर कोर्ट ने यह जनहित याचिका निरस्त कर दी।

मेंस्ट्रुएशन एक जैविक प्रक्रिया

दिल्ली के शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी द्वारा वकील विशाल तिवारी के माध्यम से याचिका दायर की गई। याचिका में मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961 की धारा 14 के पालन के लिए केंद्र और राज्यों को निर्देश देने की मांग की गई थी। द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के अनुसार तिवारी का कहना है कि मेंस्ट्रुएशन एक जैविक प्रक्रिया है और महिलाओं और छात्राओं के साथ शैक्षिक संस्थानों और कार्यस्थल पर इस वजह से भेदभाव नहीं होना चाहिए।

“पहले उन्हें नीति बनाने दीजिए, फिर हम उस पर विचार करेंगे।”

जस्टिस चंद्रचूड ने आगे कहा है, “हम इसे नकार नहीं रहे हैं लेकिन विद्यार्थी ने कहा है कि वास्तव में नियोक्ता (इंप्लॉयर) ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। इस मुद्दे के कई अलग आयाम हैं हम इसे नीति-निर्माताओं पर छोड़ देते हैं। पहले उन्हें नीति बनाने दीजिए, फिर हम उस पर विचार करेंगे।” अदालत ने कहा है कि इस नीति के बहुत से आयाम शामिल होने की वजह से हमारा मत हैं कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को इस पर ध्यान देना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा है कि किसी भी तरह का न्यायिक आदेश महिलाओं के विरूद्ध भी जा सकता है।

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