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Why should Pakistan not be thrown out of SAARC, a friend of Taliban?
आर.के. सिन्हा
स्तंभकार
पाकिस्तान दक्षिण एशियाई देशों के बीच आपसी सहयोग और मैत्री बढ़ाने के सशक्त मंच साउथ एशियन एसोसिएशन फॉर रीजनल को-आॅपरेशन (सार्क) को हर तरह से तबाह करने का प्रयास कर रहा है। उसका रवैया बेहद नकारात्मक रहा है, जिसके चलते सार्क का यह मंच पंगु सा हो चुका है। पाकिस्तान ने हाल ही में मांग उठा दी है कि न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र के 76 वें सालाना सम्मेलन के दौरान ही होने वाले सार्क देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज हो गए तालिबान सरकार के नुमाइंदों को भी शामिल किया जाए। इस मसले पर बाकी सार्क देश तैयार नहीं हुए और उन्होंने इस बैठक को ही रद्द कर दिया। उनका मानना था कि पाकिस्तान की मांग को मानने का यह मतलब है कि वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस सरकार को समर्थन दे रहे हैं, जो घोर प्रतिक्रियावादी, आतंकवाद समर्थक और महिला विरोधी है।
तालिबान के मन में मानवाधिकारों के लिए कोई जगह नहीं है इसलिए पाकिस्तान की बेतुकी मांग को कतई नहीं माना जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क राष्ट्रों के नेताओं को आमंत्रित करके इस कमजोर होते जा रहे संगठन को फिर से जिंदा करने की जोरदार पहल की थी जबकि पाकिस्तान इसमें लगातार अवरोध खड़े करता रहा है। सार्क दक्षिण एशियाई देशों का आर्थिक और राजनीतिक संगठन है। इसकी स्थापना 8 दिसंबर 1985 को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, मालदीव और भूटान द्वारा मिलकर की गई थी।
सार्क के अप्रैल 2007 में हुए 14वें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान को इसका आठवां नया सदस्य बनाया गया। अगर सार्क से जुड़े इतिहास के पन्नों को खंगालें तो पता चलेगा कि 1970 के दशक में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने दक्षिण एशियाई देशों के एक व्यापार गुट के सृजन का प्रस्ताव किया था। मई 1980 में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का विचार फिर रखा गया। अप्रैल 1981 में सातों देश के विदेश सचिव कोलंबो में पहली बार मिले। तब सार्क का अस्तित्व सामने आया। अफसोस कि पूरी दुनिया परस्पर आर्थिक सहयोग के महत्व को तो अब अच्छी तरह से समझने लगी है, पर सार्कको तो आगे ही नहीं बढ़ने देता पाकिस्तान। इसी के चलते सार्क देश आपसी व्यापार और आतंकवाद जैसे अहम सवालों पर भी एक राय नहीं बना पाए। इसके बाद भी पाकिस्तान सार्क का अंग बना ही हुआ है। भारत सार्कको मजबूत बनाने को लेकर शुरू से ही गंभीर रहा है। उसका मत है कि सार्क फिर से सक्रिय हो। इसके सदस्य देश आपसी सहयोग करें। भारत ने वैश्विक महामारी कोरोना से लड़ने में भी सार्कदेशों को हरसंभव सहयोग का वादा किया था और सहयोग किया भी। कहते ही हैं कि कष्ट और संकट में पड़ोसियों को एक-दूसरे के साथ खड़ा हो जाना चाहिए। संकट की स्थिति में पुराने गिले-शिकवे भी भुला देने चाहिए। भारत भय का पर्याय बन चुके ह्यकोरोना वायरसह्ण का मुकाबला करने में सार्क देशों के साथ रहा। पाकिस्तान की अवाम ने भी यह देखा पर उसके नेता भारत की तारीफ करने से बचते रहे। अब सार्क देशों को पाकिस्तान को अपने मंच से बाहर निकालने के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करना ही होगा। उन्हें देखना होगा कि मंच का मात्र एक सदस्य देश किस तरह से मंच के ही बाकी सभी साथी देशों को नुकसान पहुंचता रहा है।
पाकिस्तान सिर्फ भारत का ही शत्रु नहीं है। वह तो बांग्लादेश के भी पीछे पड़ा रहता है। अगर सार्क देश पाकिस्तान को बाहर का रास्ता दिखा देते हैं तो इससे उनका मंच मजबूत ही होगा। वे तब एक-दूसरे का आर्थिक और अन्य क्षेत्रों में खुलकर पर्याप्त सहयोग कर सकेंगे। आतंकवाद से लड़ सकेंगे। पाकिस्तान से इतर सार्क देशों को यह याद रखना होगा कि वे पाक के रहते कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर सकेंगे। पाकिस्तान के बिना ही सार्क देश अपने लुंज-पुंज आर्थिक सहयोग को भी गति दे सकेंगे।
कोरोना महामारी के दौर में सब देशों, खासतौर पर पड़ोसियों को मिलकर काम करना होगा। सार्क देशों के पास यह अनुपम अवसर है कि वे सार्क आंदोलन को गति देते हुए विकास के रास्ते पर चलें।
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