India News (इंडिया न्यूज), अजीत मेंदोला, नई दिल्ली: इस बार का लोकसभा चुनाव समझ से परे हो गया है। सत्तापक्ष खुश दिखने की कोशिश करता है तो विपक्ष बदलाव की पूरी उम्मीद में हैं। जानकार भी दलों के हिसाब से अनुमान तो लगा रहे हैं,लेकिन मजबूती से कोई कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है। सत्तापक्ष और विपक्ष अभी तक जिस तरह से चुनाव लड़ें उससे भी वोटर में अभी तक कोई उत्साह नहीं नजर आया। कहीं ना कहीं मुद्दों को लेकर सभी दल भ्रमित हैं। सत्ताधारी बीजेपी के पास तमाम मुद्दे थे। इसी के चलते लगता था कि चुनाव इस बार एक तरफा होगा। लेकिन चुनाव की घोषणा होते ही बीजेपी के रणनीतिकारों से गड़बड़ हो गई। या वो मान बैठे कि अपने आप ही सब कुछ हो जायेगा।
22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर में राम लला की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद तो विपक्ष ने हथियार ही डाल दिए थे। कांग्रेस जैसी पार्टी के नेताओं ने चुनाव लड़ने से दूरी बना ली थी। जैसे तैसे उम्मीदवार तैयार किए गए। अयोध्या का भय और आर्थिक तंगी की वजह से कांग्रेस मन से चुनाव लड़ती नहीं दिखी। प्रत्याशी ही अपने आप ही चुनाव लड़े। पहले और दूसरे चरण में कम वोटिंग के बाद कांग्रेस के नेताओं की सक्रियता बढ़ी। किसी प्रकार की कोई लहर न होने और कम वोटिंग ने विपक्ष की उम्मीद जगाई जरूर, लेकिन वह भी खुल कर जीत का दावा नहीं कर पा रहे हैं। कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी उनकी बहन प्रियंका गांधी और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के दौरे बढ़ाए गए। कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ने लगी।
अब सवाल यही है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक तरफा दिखने वाला चुनाव अचानक उदासीन हो गया। हालांकि अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि क्या होने जा रहा क्योंकि असल पता तो परिणाम वाले दिन 4 जून को ही लगेगा, लेकिन इतना जरूर है कि बीजेपी से कोई रणनीतिक चूक तो हुई है। इस चूक के चलते हिन्दी भाषी वाले राज्यों जहां पर चुनाव हो गए हैं बीजेपी खुद ही चिंतित है। चिंता की वजह यही है कि 2019 वाले प्रदर्शन में कुछ गिरावट आ सकती है। लेकिन वह गिरावट इतनी नहीं है कि विपक्ष को बहुत फायदा हो रहा हो। लेकिन एक एक सीट का अपना मतलब है। अटल बिहारी वाजपेई की सरकार एक वोट से गिर गई थी।
खैर बात ये हो रही थी कि चूक कहां हुई। पहली बड़ी चूक तो अयोध्या के नवनिर्मित राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का मूहर्त जल्द निकलवा दिया गया। रामनवमी के आसपास का निकलता तो फिर लाभ ज्यादा मिलता। मूर्ति की स्थापना के बाद बीजेपी ने हर राज्य से भक्तों को अयोध्या ले जाने की जो रणनीति बनाई थी उसे वह अंजाम तक नहीं ले जा सकी। उसके बाद अयोध्या पर बीजेपी देश भर में कोई अभियान नहीं चला पाई। अयोध्या और राम के बजाए चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द सिमट गया। प्रचार में 400 पार का नारा ज्यादा बड़ा बना दिया गया। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने मान लिया अब कुछ नहीं करना।
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अति उत्साह में आ कर बिना आंकलन के टिकट काटे जाने का फैसला भी सही साबित नहीं रहा। उदाहरण के लिए गाजियाबाद से वी के सिंह का और राजस्थान की चुरू से राहुल कसवा का टिकट काट दिया गया। दोनों नेता साफ छवि के थे,लेकिन इसका असर यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में संदेश गया कि सिंह का टिकट कटने से राजपूत नाराज हो गए। उधर राजस्थान में राहुल तुरंत कांग्रेस में शामिल हो गए उन्हें टिकट मिल गया। राजस्थान में पहले से नाराज चल रहे जाटों का बीजेपी के खिलाफ ध्रुवीकरण हो गया। प्रदेश में जाती की राजनीति गर्मा गई। इस बीच केंद्रीय मंत्री पुरुषोत्म रूपाला के राजपूतों पर दिए बयान ने देशभर में राजपूतों में नाराजगी भर दी। बीजेपी की गलत रणनीति के चलते चुनाव देशभर में जाति की राजनीति की तरफ बढ़ गया।
चुनाव अचानक जाति की राजनीति की तरफ क्यों बढ़ा? इसको लेकर कई बातें सामने आ रही हैं। हुआ यूं कि 400 पार के नारे को विपक्ष ने संविधान बदलने से जोड़ दिया। एक मैसेज चला गया कि संविधान बदला तो आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा। कहते हैं कि इस काम में आरक्षण का लाभ लेने वाली ब्यूरोक्रेसी ने भीतर ही भीतर निचले स्तर तक आरक्षण खत्म करने की बात पहुंचा दी। तहसील स्तर तक संदेश दे दिया गया कि बीजेपी आरक्षण खत्म कर सकती है। पहले चरण की वोटिंग में उसका कई जगह असर दिखाई दिया। लेकिन अच्छी बात यह रही कि दोनों तरफ का वोटर वोट देने ज्यादा नहीं निकला। फिर राजनीतिक दलों की समझ में आया कि आरक्षण मुद्दा बन गया है।
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प्रधानमंत्री मोदी से लेकर पूरी बीजेपी ने अपनी रणनीति बदली। 400 पार के बजाए चुनाव प्रचार में जोर इस बात पर दिया गया आरक्षण खत्म नहीं होगा और दूसरे मुद्दों को सामने ला चुनाव को ध्रुवीकरण की तरफ मोड़ दिया गया। उधर कांग्रेस और पूरे इंडी गठबंधन ने 400 पार को आरक्षण खत्म करने से जोड़ मुद्दा बना दिया। जिसका दूसरे चरण की वोटिंग पर भी असर दिखा। लेकिन तब तक बीजेपी और संघ ने स्थिति को संभाला। इसका नतीजा यह हुआ कि तीसरे चरण में बीजेपी ने स्थिति संभाल ली। लेकिन मुद्दे बदल गए। प्रधानमंत्री मोदी चुनाव को कांग्रेस और राहुल गांधी पर केन्द्रित करने लगे। कांग्रेस के घोषणा पत्र से लेकर तमाम पुराने वो मामले उछाले गए जिससे कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण पर घेरा जा सके। कांग्रेस उनकी ट्रेक में फंसे।
चुनाव को मोदी बनाम राहुल करने की कोशिश की जा रही है। इस बीच गांधी परिवार के करीबी सैम पित्रोदा ने दो विवादास्पद बयान दे बीजेपी को और मौका दे दिया। चौथे चरण की वोटिंग से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव में उद्योगपति अडानी और अंबानी की एंट्री करा राहुल गांधी और कांग्रेस को घेरे में ले लिया। हालांकि कांग्रेस अडानी अंबानी मुद्दे को बीजेपी की बौखलाहट से जोड़ रही है। जबकि ऐसा है नहीं प्रधानमंत्री मोदी ने जानबूझकर यह सब बोला है। प्रधानमंत्री मोदी ने यह बात तेलंगाना की करीमनगर की रैली में यह बात बोली। तेलंगाना में कांग्रेस की हाल में सरकार बनी है।
तेलंगाना की सरकार ने इसी साल 17 जनवरी को अडानी समूह के साथ 12 हजार 400 करोड़ का समझोता किया था। प्रधानमंत्री मोदी ने इसी को देख शायद यह मुद्दा उठाया होगा। प्रधानमंत्री मोदी का यह दाव कितना असरकारक होगा इसके कुछ संकेत चौथे चरण की वोटिंग के बाद पता चलेगा। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी को गांधी परिवार के करीबी सैम पित्रोदा ने देश के नागरिकों पर नस्लीय टिप्पणी कर दूसरा अहम मुद्दा दे दिया। कांग्रेस जैसे तैसे सैम पित्रोदा से अपना पीछा छुड़ाती उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता अधीर रंजन चौधरी ने पित्रोदा का बचाव कर ऐसा बोल दिया जिसे बीजेपी ने मुद्दा बना लिया। उन्होंने भी एक तरह नस्लीय टिप्पणी को सही ठहरा दिया।
बंगाल और तेलंगाना दोनों ऐसे राज्य हैं जहां पर बीजेपी अपनी सीट बढ़ाने के लिए हर दाव चल रही है। कांग्रेस भले ही अडानी अंबानी पर पीएम के खिलाफ आक्रमक बनी है लेकिन यह लंबा चलेगा नहीं। प्रधानमंत्री मोदी की नई रणनीति से साफ है कि हर चरण में वह कांग्रेस को ही टारगेट कर नए मुद्दों पर कांग्रेस को घेरेंगे। जिससे चुनाव मोदी बनाम राहुल दिखे। मतलब यह एक ऐसा चुनाव हो गया जिसमें अंतिम चरण की वोटिंग तक कुछ भी कहना खतरे से खाली नही होगा।
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