संबंधित खबरें
टीम इंडिया में रोहित शर्मा का दुश्मन कौन? पूर्व क्रिकेटर के खुलासे ने भारतीय क्रिकेट में मचाई सनसनी
राजमा चावल के फैंस अब हो जाइये अब सावधान! इन लोगो के लिए राजमा खाना हो सकता हैं जानलेवा?
Modi 3.0: ‘मोदी 3.0 के लिए देश तैयार, अब विकास पकड़ेगा और रफ़्तार’
Modi 3.0: अमित शाह क्या फिर संभालेंगे संगठन? पार्टी को 2029 के लिए रिचार्ज की है जरूरत
Modi 3.0: सेंट्रल हॉल का संदेश, एक देश एक चुनाव भी होगा और पीओके भी लेंगे
जनता की अदालत में फेल हुए दलबदलू नेता, 76 में से एक तिहाई ही बन पाए सांसद
India News (इंडिया न्यूज), अरविन्द मोहन, नई दिल्ली: अगर इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चार सौ पार के नारे को चुनाव का मुख्य स्वर बनाने के बाद भी पहले दो चरण के मतदान में गिरावट और उत्साहहीनता के विश्लेषण के क्रम में बहुत सारे लोगों को 2004 चुनाव के पहले के ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा याद आता है तो यह कोई हैरानी की बात नहीं है। तब भी कई राज्यों की विधान सभा चुनावों में भाजपा जीती थी, जीडीपी के आँकड़े बड़े चमकीले बताए जा रहे थे और यह लग रहा था कि भाजपा-एनडीए को अगर कुछ सीट काम पड़े तो मुलायम सिंह और शरद पँवार जैसे लोग समर्थन के लिए तैयार हों ही जाएंगे-ज्यादा से ज्यादा सौदेबाजी में कुछ अधिक दाम चुकाना हो। हम जानते हैं कि उस चुनाव में बहुत ही कमजोर कांग्रेस और ठीक से हिन्दी भी न बोल पाने वाली सोनिया गांधी ने इंडिया शाइनिंग की हवा निकाल दी थी। कांग्रेस भाजपा से आगे भी निकल गई थी। पर इस तुलना को ज्यादा आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। तब के प्रमोद महाजन, जेटली, आडवाणी जी, जोशी जी जैसे भी कुशल मैनेजर थे लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी न थी। इस जोड़ी द्वारा तय सीटों का लक्ष्य कई बार चुनावी अर्थात हार या जीत, पूरा होने या न होने वाला भी साबित हुआ है लेकिन इस बार विपक्ष को जिस स्थिति में ला दिया गया है, राहुल गांधी और सारे विपक्षी नेताओं की छवि को जिस तरह ध्वस्त किया गया है और भाजपा हर मामले में लीड की स्थिति से शुरूआयात कर रही थी, उससे यह तुलना ज्यादा मतलब की नहीं है।
और तुर्रा यह है कि मोदी जी ही एजेंडा सेट करते हैं, अपनी ही पार्टी नहीं बाकी पार्टियों को चलाते दिखते हैं और लगभग अधिकांश विपक्षी नेताओं को उन्होंने किसी न किसी तरह से घेर लिया है। दर्जन भर मुख्यमंत्रियों/पूर्व मुख्यमंत्रियों से दलबदल कराने के बाद लगभग सारी पार्टियों में टूट-फुट कराई जा चुकी है। कई राज्यों में भाजपा के अंदर मुख्य नाराजगी इसी बात की हो गई है कि सारे महत्वपूर्ण स्थानों से दलबदलुओं को टिकट दिए गए हैं। और सामान्य स्थिति में चुनाव जितवा देने वाले अनेक मुद्दे भाजपा की झोली में हैं। मोदी की गारंटी ही सबसे प्रबल स्वर दिखने लगा था। दूसरी तरफ विपस है अब तक न एक संगठन, न एक मोर्चा, न एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम, न एक नेता की तरफ बढ़ने का होश ही नहीं है क्योंकि हर दल और प्रदेश में टूट-फूट का क्रम अभी भी जारी है और इसमें नेताओं के नाराज होने और पार्टी से अलग कराने के लिए भाजपा के उकसावे या प्रलोभन की भी जरूरत नहीं है। विपक्षी एकता का इंडेक्स आगे बढ़ रहा है या पीछे जा रहा है, इसकी सुध लेने की भी फुरसत नहीं है।
लेकिन दो कार्यकाल पूरा होने और अच्छे दिन लाने या बालाकोट जैसी घटना जैसा केन्द्रीय मुद्दा न होने से सारी तैयारी बेअसर होती लगती है। मोदी की गारंटी पर जिसको भरोसा है उसको है और जिसको नहीं है उसको होता नहीं दिखता। मतदाताओं में तो उत्साह नहीं ही है, कार्यकर्ताओं में उससे भी ज्यादा उत्साहहीनता है। मतदान की कमी के पीछे ये कारण हो सकते हैं। दूसरी तरफ विपक्ष के पास संगठन और कार्यकर्त्ताओं की पर्याप्त फौज भी नहीं है तो आप उस तरफ की हवा होने का दावा भी नहीं कर सकते। चुनाव प्रो-मोदी, एंटी मोदी ही है। प्रो राहुल, प्रो अखिलेश, प्रो तेजस्वी तो नहीं ही है। और जिन मुसलमानों के मोदी विरोधी और हर स्थिति में पहले भाजपा को सारा सकने वाले उम्मीदवार को तलाशने की उत्सुकता तो है लेकिन उनमें भी पहले की तरह उत्साह से चुनाव में वोट डालने की रिपोर्ट नहीं है। भाजपा का हों या उसके सभी सहयोगी दलों का लगभग हर उम्मीदवार मोदी के नाम के सहारे है। सिर्फ उनकी सभाओं और रोडशो की मांग हो रही है। अकेले मोदी जितना कर सकते हैं उतना कर रहे हैं पर हर मीटिंग की हर कुर्सी भरवाना उनका काम नहीं हों सकता।
Prajwal Revanna Case: सेक्स टेप कांड आरोपों पर प्रज्वल रेवन्ना का पहला रिएक्शन, जानें क्या कहा
ऐसे आयोजनों से लेकर मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाना कार्यकर्त्ताओं का काम है। और यह कहना पर्याप्त नहीं है कि चार सौ पार के नारे से झलकते अति आत्मविश्वास के चलते वे सुस्त पड़ गए है कि हमारे न सक्रिय होने पर भी पार्टी जीत ही जाएगी। उनमें पुराने या बार बार रिपीट होने वाले उम्मीदवारों को लेकर एक नाराजगी है तो नए (और दूसरे दलों से लाकर मैदान में उतारे) उम्मीदवारों से ज्यादा नाराजगी है। मतदाता भी एक सीमा से ज्यादा सरकार गिराने, नेता तोड़ने, विपक्ष की घेरेबंदी को लेकर हैरान है तो कार्यकर्त्ता भी। लेकिन संघ के लोग और मोदी भक्तों का यह स्वभाव नहीं है। वे हर हाल में जुटते हैं और बिहार विधान सभा या इससे पहले के मध्य प्रदेश चुनाव(2018 वाला) में भाजपा के कार्यकर्ताओं और मौनेजरों ने हारती बाजी पलटी थी। ऐसा कई बार हो चुका है। और इस बार भी पहले डऔर की तुलना में दूसरे दौर में मतदान का बढ़ाना यह बताता है कि संघ परिवार और मोदी भक्त जोर लगा रहे हैं- संभव है कुछ जोर विपक्ष के मरियल संगठन में पहले दौर की उत्साहवर्द्धक रिपोर्ट से भी आई हो।
पर सोशल मीडिया के की परदों के भीतर चलाने वाले खेल को समझने और जानने वालों का दावा है असल में अभी मोदी समर्थकों के इस विशाल समूह में खुद ही दोफाड़ होने का खतरा है-‘ट्रेडस’ और ‘रायताज’ जैसे नाम वाले खेमों। ट्रेडस मतलब अत्यधिक परंपरावादी-कट्टरपंथी और ‘रायताज’ का मतलब जरा मिलावट की वकालत करने वाले। और इन्ही जानकारों का मानना है कि खुद मोदी जैसे लोग रायता वाले वर्ग में आटे गए हैं क्योंकि उन्हें साध्वी और अनंत हेगड़े जैसों के पक्ष में खड़ा होने का साहस नहीं बचा है। और इन जमातों की बहस से अंदाजा लगता है कि अंडर ही अंडर भारी उथल-पुथल है और इसमें संघ का लगभग पूरा शीर्ष भी रायता गिना जाने लगा है। अगर भागवत भी आरक्षण और मुसलमानों के पक्ष में बोलने को ‘मजबूर’ हों तो उनको भी हमले झेलने के लिए तैयार रहना होगा। पर अनाम या छद्मनाम लोगों के बीच चलने वाली इस गोपनीय सोशल मीडिया की चर्चा आम कार्यकर्त्ताओं के बीच की अनिश्चितता, दोचित्तपन और उदासीनता के मूल को बताती है। और बाहर हर चीज मैनेज करने में सक्षम मोदी जी और उनके सहयोगी इस चीज का प्रबंधन कर कर पाएं यह हैरानी की बात है। यह यह भी मानी कि यह मैनेज हों सकने वाली चीज है। इस लिए चार सौ पार के नारे को फांस ही नहीं मानिए।
Get Current Updates on, India News, India News sports, India News Health along with India News Entertainment, and Headlines from India and around the world.