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India News (इंडिया न्यूज), Karna Ki Mrityu: महाभारत का युद्ध अपने चरम पर था जब कर्ण, कौरवों के एक प्रमुख योद्धा, का वध हुआ। कर्ण का पतन कौरव सेना के लिए एक अपूरणीय क्षति थी, जिससे उनकी सेना में भय और निराशा फैल गई। युद्ध भूमि में, कर्ण के वध के बाद कौरव सेना का मनोबल टूट गया और सैनिकों में भय व्याप्त हो गया। अर्जुन और भीम की वीरता से भयभीत होकर कौरवों की सेना अस्त-व्यस्त हो गई और चारों ओर भागने लगी। जिनके पास जहां भी थोड़ी सी भी जगह मिली, वे वहां से भागने लगे। महारथी और वीर योद्धा भी इस आतंक के आगे हार मानकर युद्ध का मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए।
दुर्योधन, जो अपने सेनापतियों और योद्धाओं पर गर्व करता था, इस दृश्य को देखकर स्तब्ध रह गया। उसने तुरंत भागती हुई सेना को रोकने का प्रयास किया, लेकिन यह कार्य सरल नहीं था। कौरव सेना पर अर्जुन और भीम का ऐसा भय था कि उन्हें रोकना लगभग असंभव प्रतीत हो रहा था।
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इसी बीच, कृपाचार्य, जो दुर्योधन के प्रमुख सलाहकार और गुरु थे, दुर्योधन के पास आए। उन्होंने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उसे युधिष्ठिर से संधि करने की सलाह दी। कृपाचार्य ने दुर्योधन को समझाया कि अब समय आ गया है कि वह अपने अंहकार को छोड़कर शांति का मार्ग अपनाए और अपने भाइयों को इस विनाशकारी युद्ध से बचा ले।
लेकिन दुर्योधन, जो अपनी प्रतिष्ठा और सत्ता के लिए जिद्दी था, ने कृपाचार्य का यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। उसके लिए संधि और शांति का विचार अस्वीकार्य था। वह किसी भी कीमत पर युद्ध जीतना चाहता था और इसके लिए किसी भी बलिदान से पीछे नहीं हटने वाला था।
तब, अश्वत्थामा, जो द्रोणाचार्य के पुत्र और एक महान योद्धा थे, ने एक नया प्रस्ताव रखा। उन्होंने दुर्योधन को मद्रराज शल्य को कौरव सेना का सेनापति बनाने का सुझाव दिया। अश्वत्थामा का मानना था कि शल्य की रणनीतिक क्षमता और वीरता कौरव सेना को फिर से संगठित कर सकती है और उन्हें विजय की दिशा में अग्रसर कर सकती है।
दुर्योधन ने अश्वत्थामा के इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और शल्य को कौरव सेना का नया सेनापति बना दिया। इस निर्णय के साथ ही कौरव सेना ने एक बार फिर से संगठित होने का प्रयास किया, लेकिन युद्ध का परिणाम तो पहले ही विधाता ने तय कर दिया था। दुर्योधन का यह अडिग निर्णय उसके विनाश की कहानी का एक और अध्याय बन गया।
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इस प्रकार, कर्ण के वध के बाद कौरव सेना में फैली निराशा और दुर्योधन का यह साहसिक परंतु विफल निर्णय महाभारत के उस अंतिम युद्ध का प्रतीक बन गया, जिसमें धर्म और अधर्म के बीच अंतिम संघर्ष ने अपना रूप लिया।
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