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हाथ पीले की जगह करते हैं दांत काले, इस जगह शादी के लायक बेेटी के साथ करते हैं ये  हैरतअंगैज काम

Blackened Teeth Tradition:  आज हम आपको एक ऐसी हैरतअंगैज पंरपरा के बारे में बताने वाले है, जहां लड़कियों के दांत काले किए जाते है.

Written By: shristi S
Last Updated: October 8, 2025 16:29:41 IST

Teeth Blackening History: जब बेटी बड़ी हो जाती हैं तो उसके हाथ पीले करने का तो सुना हैं, लेकिन जपान में एक ऐसी अजीब परंपरा है, जहां लड़कियों के दांत काले किए जाते हैं. जी हां, सही सुना आपने इस परंपरा को यहां सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है. यह एक गहरी सांस्कृतिक, सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी मान्यता को दर्शाती है. यह परंपरा जपान सहित भारत,  दक्षिण-पूर्व एशिया और कुछ लैटिन अमेरिकी समुदायों में सदियों तक सामाजिक प्रतिष्ठा और परिपक्वता की पहचान मानी जाती थी.

कैसे हुई इस परंपरा की उत्पत्ति?

दांत काले करने की परंपरा का उल्लेख प्राचीन जापानी, भारतीय और वियतनामी अभिलेखों में मिलता है. जापान में इसे ‘ओहागुरो’ कहा जाता था एक ऐसा सौंदर्य अभ्यास जो समुराई, उच्च वर्ग की महिलाओं और अभिजात परिवारों में प्रचलित था. भारत में ‘मिस्सी’ के नाम से यह परंपरा आम थी, जिसे विशेष रूप से ग्रामीण और पारंपरिक समुदायों में दांतों को सुंदर और मजबूत दिखाने के लिए अपनाया जाता था. वियतनाम, लाओस, फिलीपींस और इंडोनेशिया में इसे स्त्रियों की विवाह योग्य आयु से भी जोड़ा जाता था. कई समाजों में काले दांत यौवन, निष्ठा, वैवाहिक स्थिति और सामाजिक पद का प्रतीक माने जाते थे. यह माना जाता था कि दांतों को काला करना उन्हें निखारने और व्यक्ति की गरिमा बढ़ाने का एक तरीका है.

कैसे काले किए जाते थे दांत?

इस परंपरा के पीछे एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया थी. जापान में लोहे की बुरादे को सिरके में मिलाकर एक गाढ़ा काला तरल तैयार किया जाता था, जिसे ‘कनेमिज़ु’ कहा जाता था. इस घोल में गालनट पाउडर, चाय की पत्तियां, लौंग और दालचीनी जैसे तत्व मिलाए जाते थे ताकि स्वाद और सुगंध सुखद रहे. बांस की ब्रश, पंख या लकड़ी की छोटी छड़ियों से यह मिश्रण दांतों पर सावधानीपूर्वक लगाया जाता था. भारत में ‘मिस्सी’ के रूप में आयरन सल्फेट और हर्बल तत्वों का उपयोग किया जाता था. इसका उपयोग न केवल रंग बदलने के लिए बल्कि दांतों को कीड़ा लगने और संक्रमण से बचाने के लिए भी किया जाता था.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कैसे सुरक्षित हैं यह परंपरा

इस परंपरा के पीछे केवल सांस्कृतिक कारण ही नहीं थे, बल्कि इसमें छिपा था एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण. मिश्रण में मौजूद लौह तत्व और टैनिन दांतों की सतह पर एक मजबूत परत बना देते थे.  यह परत बैक्टीरिया और एसिड से दांतों की रक्षा करती थी. आधुनिक शोध में पाया गया कि जिन लोगों ने ओहागुरो या मिस्सी जैसी प्रथाएं अपनाईं, उनके दांत दशकों तक सड़े बिना सुरक्षित रहे. कह सकते हैं कि यह परंपरा आधुनिक डेंटल सीलेंट का पारंपरिक रूप थी.

किन-किन समाजों में थी यह परंपरा

  • जापान (ओहागुरो): समुराई वर्ग, अभिजात महिलाएं और गीशा समुदाय.
  • भारत: मिस्सी के रूप में ग्रामीण व पारंपरिक परिवारों में.
  • वियतनाम: युवतियों के विवाह योग्य होने का प्रतीक.
  • लाओस, थाईलैंड, फिलीपींस: हिल ट्राइब्स की महिलाओं में प्रचलित.
  • इंडोनेशिया और पेरू: कुछ जनजातियों द्वारा सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में.

कब हुआ इस परंपरा का पतन

19वीं सदी के उत्तरार्ध में पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण सौंदर्य मानकों में बदलाव आया. 1870 में जापान की सरकार ने ओहागुरो पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध लगा दिया. सम्राज्ञी ने सार्वजनिक रूप से बिना काले दांतों के उपस्थिति दी, जो एक नए फैशन युग की शुरुआत थी. अभिजात वर्ग ने भी इसे धीरे-धीरे त्याग दिया. भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में भी यह प्रथा शहरों में लगभग समाप्त हो गई. आज यह केवल नाटकों, गीशा परफॉर्मेंस और कुछ ग्रामीण जनजातियों में ही दिखाई देती है.

लोककथाओं में ओहागुरो की झलक

इस परंपरा का असर केवल वास्तविक जीवन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि लोककथाओं में भी अमर हो गया. जापान में ‘ओहागुरो बेट्टारी’ नामक भूतिया कथा में एक महिला के काले दांत और बिना चेहरे के प्रेत रूप का वर्णन है. यह कहानी इस प्रथा की गहराई और सांस्कृतिक प्रभाव को दर्शाती है.

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