संबंधित खबरें
महाकुंभ में किन्नर करते हैं ये काम…चलती हैं तलवारें, नागा साधुओं के सामने कैसे होती है 'पेशवाई'?
सोमवती अमावस्या के दिन भुलकर भी न करें ये काम, वरना मुड़कर भी नही देखेंगे पूर्वज आपका द्वार!
80 वर्षों तक नही होगी प्रेमानंद जी महाराज की मृत्यु, जानें किसने की थी भविष्यवाणी?
घर के मंदिर में रख दी जो ये 2 मूर्तियां, कभी धन की कमी छू भी नही पाएगी, झट से दूर हो जाएगी कंगाली!
इन 3 राशियों के पुरुष बनते हैं सबसे बुरे पति, नरक से बदतर बना देते हैं जीवन, छोड़ कर चली जाती है पत्नी!
अंतिम संस्कार के समय क्यों मारा जाता है सिर पर तीन बार डंडा? जानकर कांप जाएगी रूह
India News (इंडिया न्यूज), Bhishma Pitamah Mrityu: महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह, जिन्हें पहले देवव्रत के नाम से जाना जाता था, भारतीय महाकाव्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भीष्म का जीवन बलिदान, त्याग, और कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक है। उनका समर्पण और प्रतिज्ञा, जिनके कारण उन्हें “भीष्म” की उपाधि प्राप्त हुई, भारतीय इतिहास और संस्कृति में प्रेरणा का स्तंभ बने हुए हैं।
देवव्रत का जन्म हस्तिनापुर के राजा शांतनु और गंगा के पुत्र के रूप में हुआ था। वे बचपन से ही पराक्रमी और धर्मपरायण थे। उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण महान ऋषियों के सान्निध्य में हुआ, जिसमें वे युद्ध कौशल और वेदों का गहन ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। वे एक कुशल योद्धा और एक विवेकशील विद्वान के रूप में पहचाने जाते थे।
कैसे होता था महाभारत काल में द्रौपदी का स्नान…किस तरह नहाया करती थी उस दौर की रानियां?
राजा शांतनु ने एक समय सत्यवती नामक स्त्री से विवाह की इच्छा प्रकट की, लेकिन सत्यवती के पिता ने उनकी पुत्री का विवाह एक शर्त पर करने का वचन दिया। उन्होंने कहा कि सत्यवती के पुत्र ही हस्तिनापुर के राजा बनेंगे, न कि शांतनु के पहले पुत्र देवव्रत। पिता की इच्छा पूरी करने के लिए देवव्रत ने आजीवन विवाह न करने और संतान न होने की प्रतिज्ञा ली। उनके इस महान त्याग और प्रतिज्ञा को देखकर देवताओं ने उन्हें “भीष्म” का नाम दिया, जिसका अर्थ होता है “वह जो कठिन प्रतिज्ञा लेता है”।
महाभारत के युद्ध में, भीष्म कौरवों की ओर से सेनापति के रूप में लड़े। उनके अद्वितीय युद्ध कौशल के कारण पांडवों के लिए उन्हें हराना असंभव लग रहा था। भीष्म की मृत्यु के दिन तक, उन्होंने अपने कर्तव्यों का पालन किया, चाहे वह धर्म हो या राज्य के प्रति उनकी निष्ठा। वे युद्ध में अर्जुन के हाथों बाणों से छलनी हो गए, परंतु उन्होंने अपनी मृत्यु का समय स्वयं चुना, क्योंकि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था।
युद्ध में घायल होने के बाद भीष्म पितामह ने अपने शरीर को बाणों की शैया पर टिका रखा। वे 58 दिनों तक असहनीय पीड़ा सहते रहे। यह एक अद्वितीय घटना थी, क्योंकि वे अपनी अंतिम सांस तक धर्म और ज्ञान के पथ पर अडिग रहे। इस अवधि के दौरान, उन्होंने युद्ध और जीवन के बारे में कई महत्वपूर्ण शिक्षाएं दीं। महाभारत के शांति पर्व में उनकी शिक्षाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है, जो आज भी प्रासंगिक मानी जाती हैं।
भीष्म पितामह ने अपनी मृत्यु का समय सूर्य के उत्तरायण होने पर चुना। हिंदू मान्यता के अनुसार, सूर्य के उत्तरायण के समय देह त्यागने वाले व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। भीष्म ने इस काल का इंतजार किया, ताकि उनका जीवन धर्म की पूर्णता के साथ समाप्त हो और उन्हें मोक्ष प्राप्त हो सके। उनके जीवन और मृत्यु दोनों ही धर्म और कर्तव्य के उच्चतम आदर्शों का उदाहरण हैं।
भीष्म पितामह का जीवन हमें सिखाता है कि धर्म, कर्तव्य, और त्याग का महत्व क्या होता है। उनका संपूर्ण जीवन समर्पण और बलिदान की गाथा है। वे एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने व्यक्तिगत इच्छाओं को त्यागकर राष्ट्र और धर्म के लिए अपने जीवन को अर्पित किया। उनकी प्रतिज्ञा और मृत्यु शैया पर दिए गए उपदेश आज भी समाज के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। भीष्म के जीवन से हमें न केवल धर्म का पालन करने की शिक्षा मिलती है, बल्कि यह भी कि किसी भी कठिन परिस्थिति में धैर्य और निष्ठा बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण होता है।
Get Current Updates on, India News, India News sports, India News Health along with India News Entertainment, and Headlines from India and around the world.