भीष्म पितामह को उनके पिता राजा शांतनु द्वारा “इच्छा मृत्यु” का वरदान प्राप्त था। इस वरदान के कारण वे तब तक मृत्यु को प्राप्त नहीं कर सकते थे जब तक कि वे स्वयं इसकी इच्छा नहीं करते। यह वरदान उन्हें अपने पिता के सुख और उनकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दिया गया था, जिसके कारण भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचर्य और राजसत्ता का त्याग किया था।
पूरी शक्ति से कौरवों का दिया था साथ
महाभारत के युद्ध में, भीष्म पितामह ने अपनी पूरी शक्ति से कौरवों का साथ दिया। लेकिन अंततः अर्जुन के बाणों ने उन्हें युद्धभूमि में घायल कर दिया, और वे बाणों की शैय्या पर लेट गए। लेकिन भीष्म ने तुरंत प्राण नहीं त्यागे। उन्होंने उत्तरायण काल की प्रतीक्षा की, जो कि 18 दिन बाद प्रारंभ होने वाला था। उत्तरायण को हिंदू धर्म में पवित्र समय माना जाता है, और यह विश्वास है कि इस समय मृत्यु को प्राप्त करने से आत्मा को स्वर्ग में स्थान मिलता है।
इस प्रतीक्षा के दौरान, भीष्म ने पांडवों को धर्म, नीति, और शासन के महत्वपूर्ण उपदेश दिए। उनके ये उपदेश युद्ध के बाद की शांति और समृद्धि के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण थे। उत्तरायण काल आने पर, भीष्म पितामह ने अपनी इच्छा से प्राण त्यागे, और उनके आत्मा को मोक्ष प्राप्त हुआ।
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नीति का ज्ञान
इस तरह, भीष्म पितामह ने न केवल अपने कर्तव्य का पालन किया बल्कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी धर्म और नीति का ज्ञान देकर मानवता को मूल्यवान शिक्षाएं दीं। उनकी मृत्यु महाभारत की कथा में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, जो पांडवों और कौरवों दोनों के लिए गहरे अर्थों से भरी थी।
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