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हरीश गुप्ता
वरिष्ठ संपादक
अगर मोदी का गुजरात मॉडल जनता को पसंद आया और 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को प्रचंड जीत मिली, तो अरविंद केजरीवाल का दिल्ली मॉडल भी चुपचाप माहौल बना रहा है। अगर मोदी के व्यक्तित्व ने लोगों को मंत्रमुग्ध करना जारी रखा और उन्हें दो बार भारी जनादेश मिला, तो केजरीवाल ने भी दिल्ली में लगातार दो विधानसभा चुनावों 2015 और 2020 में मोदी-अमित शाह की जोड़ी को हराया। अगर देश ने 2014 से मोदी की लहर देखी है, तो केजरीवाल भी 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सफाया करते हुए और भाजपा को बहुत भारी अंतर से हराते हुए जीत हासिल करने में सफल रहे।
लेकिन 2020 में उनका अपनी जीत को दोहराना अभूतपूर्व था। यह केजरीवाल ही थे जिन्होंने राज्य दर राज्य भाजपा की जीत पर विराम लगाया। संयोग से, नीतीश कुमार ने भी 2017 में बिहार में भाजपा के अश्वमेध यज्ञ को रोका था। लेकिन वह राजद के लालू प्रसाद यादव की मदद से ही ऐसा करने में सफल हो सके थे।
यह भी विडंबना ही है कि मोदी-अमित शाह की जोड़ी और दिवंगत अरुण जेटली ने नीतीश कुमार को अपने पक्ष में करके सुनिश्चित किया कि उत्तर भारत में मोदी को चुनौती देने लिए कोई राजनीतिक ताकत न बचे। 2014 के बाद से कांग्रेस कई कारणों से आगे नहीं बढ़ सकी है। यहां तक कि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार भी मोदी के लिए सिरदर्द नहीं बन पाई है। पश्चिम बंगाल में भारी जीत के बावजूद ममता बनर्जी की फिलहाल अभी तक तो पूरे देश में अपील सीमित ही है। इसलिए इस संदर्भ में केजरीवाल का उभरना भाजपा के लिए चिंता का विषय है।
हालांकि भाजपा नेतृत्व ने उन्हें एक छोटे केंद्र शासित प्रदेश का नेता मानकर खारिज किया है, लेकिन वे अंदर से जानते हैं कि केजरीवाल के दिल्ली मॉडल ने कई राज्यों विशेष रूप से पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में बड़ी हलचल पैदा की है, जहां फरवरी-मार्च 2022 में चुनाव होने जा रहे हैं। यहां यह याद रखना चाहिए कि आईआईटी ग्रेजुएट केजरीवाल 2014 से ही राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं पाल रहे हैं, जब उनकी पार्टी ने 450 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था। भाजपा दिल्ली के बाहर केजरीवाल के उभार को रोकने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है क्योंकि वह दिल्ली में मोदी के लिए एकमात्र वास्तविक खतरा बने हुए हैं।
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