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The Path of the Disciple's Transformation opens in the Presence of the Guru. गुरु सान्निध्य में शिष्य के रूपांतरण का मार्ग खुलता है

India News Editor • LAST UPDATED : October 16, 2021, 1:21 pm IST

The Path of the Disciple’s Transformation opens in the Presence of the Guru

डॉ. अर्चिका दीदी

हर व्यक्ति के दो जन्म माने जाते हैं। एक जन्म तो माता-पिता के द्वारा होता है और दूसरा जन्म गुरु से मिलता है। इसी दूसरी अवस्था का नाम द्विज है। गुरु द्विजत्व देता है। द्विज ब्राह्मण को भी कहते हैं। एक ब्राह्मण जन्म से, दूसरा यज्ञोपवीत संस्कार होने पर द्विजत्व का वरण करता है। यज्ञोपवीत होने के बाद ही वह वेद पढ़ने का अधिकारी बनता है। इसीप्रकार दो बार रूपांतरण पक्षी का भी होता है। पक्षी को द्विज कहते हैं, क्योंकि उसके दो जन्म होते हैं। अर्थात जिसके दो जन्म होते हैं, उसे द्विज कहते हैं। पक्षी का एक जन्म तो तब होता है, जब वह अंडे के रूप में धरती पर आता है। दूसरा जन्म जब वह अंडे को तोड़कर बाहर निकलता है। इसी प्रकार मनुष्य के भी दो जन्म होते हैं। पहला जन्म माता-पिता के घर में और दूसरा गुरु के चरणों में होता है।

आत्मिक शक्ति का जगना: गुरु के सान्निध्य में जाने से आत्मिक शक्ति जगती है, जीवन में आशायें बंधती हैं और दु:ख-कष्ट मिटते हैं। इस प्रकार जीवन की दिशा बदलती है। इसलिए जीवन में गुरु बनाना अत्यन्त आवश्यक माना गया है। गुरु ब्रह्मनिष्ठ हो, परमात्मा में डूबा हुआ हो, जो संसार से भागना नहीं, अपितु संसार में जागना सिखा दे। वास्तव में भवसागर से पार निकलने का मार्ग बताने वाला गुरु कहलाता है। गुरु की प्राप्ति के लिए मनुष्य सदा प्रयत्नशील रहता है। गुरु सबसे पहले आंखों से पट्टी खोलता है। फिर अपने-पराए, सत्संग-कुसंग का ज्ञान देता है। गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की चेतना अंत:करण में जगाता है। इसीलिए गुरु जीवन में महत्वपूर्ण है।

तिमिरांधस्य, ज्ञानांजन शलाकया।
चतुर्उंगीलितंयेन, तस्मै: श्री गुरुवे नम:।।

‘गुरु’ व्यक्ति को मनुष्य होने का बोध कराता है। वह मनुष्य को अंत:करण से अनुशासित होना सिखाता है। गुरु सर्वप्रथम दिनचर्या, सोना-जागना, उठना-बैठना, खाना-पीना, रहन-सहन इन सबको व्यवस्थित कराता है। ह्यसमय बिताने का ढंग क्या हो? ‘किसका साथ करें, ‘संसार में पदार्थों को कमाने के लिए कितनी ताकत लगायें और परमात्मा का नाम जपने और उसकी कृपा पाने के लिए कितना श्रम करें।’ यह सब गुरु के मार्गदर्शन में ही बोध स्तर पर जीवन में उतरता है। गुरु शिष्य की आदर्शों के प्रति, ईश्वर के प्रति, ईश्वर के अनुशासन और ईश्वर की इस बगिया के प्रति, सेवा भावना के प्रति श्रद्धा गहरी करता है। इस प्रकार गुरु सान्निध्य में शिष्य के रूपांतरण का मार्ग खुलता है।

बंधनों का खुलना: वास्तव में यह श्रद्धा ही रूपांतरण का आधार बनती है। इसलिए गुरु यही अनुशासन जगाता है, बन्धन खोलता है, साथ-साथ श्रद्धा गहरी करता चलता है। गुरु कोशिश करता है कि जहां-जहां से मनुष्य बंधा हुआ है, वहां से खोला जा सके। जिससे शिष्य के अंदर की छिपी सम्भवनायें जग सकें। यह सौभाग्य हमें विशेष रूप से मिला। गुरु हमें अपने बंधनों की पहचान कराता है। वह हमें बताता है कि गुलामी क्या है?। संसार में होश संभालते-संभालते संसार को छोड़ना सिखाता है। इस तरह से ‘सद्गुरु’ जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल देते हैं। आज मुझे इस संदर्भ में अपनी जीवन-यात्र का सुखद आभास हो रहा है। मेरा जीवन अलौकिक उदाहरण है एक पुत्री के शिष्या में रूपान्तरित होने का। मेरा रोम-रोम, मेरे रक्त का कतरा-कतरा, मेरा समूचा अस्तित्व आभारी है उन पावन क्षणों का जब मेरी आत्मा को इस दिव्य आंगन में पुत्री के रूप में आने का अह्वान मिला। एक पिता के स्नेहपूर्ण कंधों पर खेलती, इठलाती पुत्री, एक ममतामयी माँ की गोद में पलती-पुत्री अपने परम सौभाग्य का वरदान प्राप्त कर जायेगी। यह शायद मेरी कल्पना में भी नहीं था। इतने वर्षों तक मेरे ‘सद्गुरु’ ने ही एक पिता का रूप धारण कर मेरा हाथ पकड़े रखा। यह विचार आज मेरे चित्त में हैरत भरी तरंगें पैदा कर देता है। कहते हैं न कि कभी शिष्य गुरु को ढूंढ़ता है और कभी गुरु शिष्य को। कभी ऐसा भी होता है कि दोनों एक दूसरे को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कहीं बीच राह में मिल जाते हैं, परन्तु मेरी स्थिति तो अद्भुत् है क्योंकि एक ‘सद्गुरु’ ने अपने शिष्य को संकल्प द्वारा अपने ही भीतर से प्रकट कर दिया।

सत्यं शिवमं सुन्दरम का एहसास: पिता के कर्तव्यों का निर्वहन करते-करते मेरे पूज्य पिताजी ने संसार की सर्वोत्तम संस्थाओं में विद्या से सम्पन्न कर मुझे एक सफल चिकित्सक बन जाने का आशीर्वाद दिया। पर साथ ही साथ, घर की पावन सात्विक संस्कारों की शीतल छांव ने मेरे अंत:करण को महकाया और मेरा हृदय स्वत: ही सेवा, सिमरन, प्रेम, करुणा की धाराओं से सिंचित होने लगा। भक्ति की पवित्रता ने मेरे अस्तित्व को उज्जवल कर दिया। मैं सत्यं शिवमं सुन्दरम् के शाश्वत आभा मण्डल का एहसास अपने आस-पास करने लगी। फिर वो क्षण भी आया जब पिता के भौतिक रूप से मेरे ‘सद्गुरु’ का प्राकट्य हुआ। मैं श्रीचरणों में मस्तक नवाकर अमृत-सुधा का पान कर रही थी और मेरे प्यारे ‘सद्गुरु’ की मेहर भरी दृष्टि मेरे तन-मन व आत्मा को अनन्त शक्ति से भरपूर कर चुकी थी। मैं दीक्षा की पावन डोर से गुरुचरणों से जुड़ चुकी थी। मेरे ‘सद्गुरु’ के अंतर में स्थित प्रकाश ने मुझे भीतर से जागृत कर दिया। मैं गद्गद हो उठी। जीवन का उद्देश्य स्पष्ट दिखाई देने लगा। आज मेरे ‘सद्गुरु’ के महान आदर्श मेरे जीवन के दिशा-वाहक हैं। समाज में भक्ति के विशुद्ध रूप का निरूपण, समाज का संतुलन, ह्यदेवदूत बालकल्याण महाभियान’ के अन्तर्गत बच्चों का समग्र विकास तथा और भी महान कार्य आज सहज ही मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। ध्यान का मधु, जो गुरु अमृत कृपा बन मेरे हृदय में उतरा है, आज पावन सरिता के रूप में जन-जन तक बहा देने का मेरा संकल्प बन मुझे हर क्षण गतिमान रखता है। मैं सुख-दुख से निकल आनंद की लहरों का रसपान करने लगी हूं। यह सब मेरे पूज्य पिता एवं पावन ‘सद्गुरु’ की अनंत कृपा का परिणाम है।

द्विजत्व धारण करना: मैं द्विजत्व धारण कर चुकी एक पुत्री से परिवर्तित होकर नवरूप में शिष्या बन अपने प्रिय सद्गुरु के कमल चरणों में अनन्त कोटि नमन के सुगन्धित पुष्प अर्पित करती हूं। एक समर्पित शिष्या के रूप में अपने ‘सद्गुरु’ से हाथ जोड़ मस्तक, झुका कर अपने सेवा कार्यों में सफलता के लिए आशीर्वाद माँगती हूं और गर्व करती हूं कि मैं जिसकी पुत्री से शिष्या बनी वह असाधारण हैं। मेरे पूज्य पिता श्री सुधांशु जी महाराज वेद-वेदांग, योग, अध्यात्म तथा आधुनिक विज्ञान के मर्मज्ञ हैं। इनका वैदुष्य वैश्विक स्तर पर फैला है। मेरे पिताश्री मेरे ‘सद्गुरु’ भी हैं। इनके तप, पुरुषार्थ और सद्ज्ञान को लोग नमन करते हैं। हे ऋषि परम्परा के संवाहक तुम्हें इस पुत्री व शिष्या दोनों का एक साथ नमन है।

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