History of Itmad-ud-Daula: भारत का इतिहास केवल युद्धों, बादशाहों और साम्राज्यों की कहानियों से नहीं बना है यह उन अनकही कहानियों से भी बुना गया है, जहां भावनाएं, कला और बुद्धिमत्ता ने आने वाली पीढ़ियों के लिए विरासत गढ़ी. ऐसी ही एक कहानी है नूरजहां की एक ऐसी स्त्री की, जिसने न केवल मुगल दरबार में अपनी पहचान स्वयं गढ़ी, बल्कि भारतीय स्थापत्य कला में एक नायाब उदाहरण भी पेश किया. आज आगरा की गलियों में यमुना के किनारे खड़ा “इतमाद-उद-दौला का मकबरा” उसी अद्भुत कहानी का साक्षी है. इसकी नींव ताजमहल से भी पहले पड़ी थी.
कौन थी नूरजहां?
नूरजहां का जन्म मेहरून्निसा के रूप में 1577 में एक ईरानी शरणार्थी परिवार में हुआ था. उनके पिता गयासुद्दीन बेग और माता अस्मत बेगम बेहतर जीवन की तलाश में अपने वतन को छोड़कर हिंदुस्तान की ओर निकले. यात्रा लंबी और कठिन थी असमत बेगम गर्भवती थीं, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उनकी संतान आगे चलकर मुगल दरबार में सबसे प्रभावशाली महिलाओं में गिनी जाएगी. हिंदुस्तान पहुंचने के बाद गयासुद्दीन बेग धीरे-धीरे दरबार में उच्च पद पर पहुंचे और जहांगीर से उन्हें इतमाद-उद-दौला यानी साम्राज्य का स्तंभ की उपाधि मिली.
मेहरून्निसा की सुंदरता तो प्रसिद्ध थी ही, लेकिन उनकी सबसे बड़ी ताकत उनकी समझदारी और राजनीतिक सूझबूझ थी. समय के साथ जब उन्होंने सम्राट जहांगीर से विवाह किया, तो वो नूरजहां जहां की रोशनी बन गईं. जहांगीर के शासन के अंतिम वर्षों में जब सम्राट नशे और बीमारियों से जूझ रहे थे, तब दरबार के कई अहम फैसले नूरजहां के मार्गदर्शन में लिए गए. वे मुगल साम्राज्य में आदेश जारी करने वाली पहली महिला बनीं जो उस समय की पितृसत्तात्मक सत्ता में किसी उपलब्धि से कम नहीं था.
एक बेटी का अपने माता-पिता के प्रति अमर प्रेम
1622 में जब गयासुद्दीन बेग और अस्मत बेगम का निधन हुआ, तो नूरजहां ने उन्हें यादगार बनाने का निश्चय किया. उन्होंने अपने निजी धन से एक भव्य मकबरा बनवाने की योजना बनाई. 6 सालों में तैयार हुआ यह मकबरा 1628 में पूरा हुआ. यह स्मारक केवल माता-पिता की याद में बना एक भवन नहीं था, बल्कि नूरजहां की भावनाओं, कला-दृष्टि और स्थापत्य में नवीनता का प्रतीक बन गया.
पहली बार संगमरमर की चमक से नहाई मुगल इमारत
इससे पहले तक मुगल स्थापत्य में लाल बलुआ पत्थर का ही वर्चस्व था. लेकिन नूरजहां ने परंपरा को तोड़ते हुए पूरे भवन में सफेद संगमरमर का इस्तेमाल करवाया. दीवारों पर रंगीन पत्थरों की बारीक जड़ाई पिएत्रा ड्यूरा तकनीक ने इसे एक अनमोल “ज्वेल बॉक्स” जैसा रूप दे दिया. चारबाग शैली के बगीचे में बना यह मकबरा स्वर्गीय सौंदर्य का अहसास कराता है. कहा जाता है कि शाहजहां ने ताजमहल के निर्माण के लिए इसी शैली से प्रेरणा ली थी.
बारीकियों में छिपी बेमिसाल खूबसूरती
मकबरे की रचना बेहद संतुलित और सौंदर्यपूर्ण है। चारों कोनों पर अष्टकोणीय मीनारें, बीच में मुख्य कक्ष और उसके भीतर गयासुद्दीन बेग व अस्मत बेगम की कब्रें हर तत्व में परिशुद्धता झलकती है. संगमरमर में उकेरे गए फूलों, बेलों और ज्यामितीय आकृतियों से आती सुनहरी रोशनी एक दिव्य वातावरण रचती है. यह मकबरा केवल एक स्थापत्य संरचना नहीं, बल्कि एक बेटी की आत्मा और कला का विस्तार है.
जहांगीर की मृत्यु के बाद नूरजहां का राजनीतिक प्रभाव धीरे-धीरे कम हुआ। उन्होंने लाहौर में अपने अंतिम वर्ष बिताए और 68 वर्ष की आयु में वहीं उनका निधन हुआ। उनकी कब्र आज भी जहांगीर के मकबरे के पास स्थित है। लेकिन उनका बनाया इतमाद-उद-दौला का मकबरा आज भी आगरा की पहचान बना हुआ है।
बेटी के प्रेम और श्रद्धा की बनी मिसाल
इतिहासकार मानते हैं यदि ताजमहल प्रेम का प्रतीक है, तो इतमाद-उद-दौला का मकबरा श्रद्धा और स्मृति का प्रतीक है. नूरजहां ने अपने पिता की उपाधि और अपनी भावनाओं को संगमरमर में उकेर दिया. चार शताब्दियों बाद भी यह स्मारक न केवल स्थापत्य कला की मिसाल है, बल्कि एक बेटी के अटूट प्रेम और दूरदर्शिता की कहानी भी कहता है. जब भी यमुना के किनारे शाम की ठंडी हवा चलती है, तो ऐसा लगता है जैसे उस हवा में आज भी नूरजहां की कला, बुद्धिमत्ता और प्रेम की खुशबू घुली हो. इतमाद-उद-दौला केवल एक स्मारक नहीं यह उस स्त्री की कहानी है जिसने इतिहास में अपनी जगह खुद लिखी.