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Modi 3.0: कांग्रेस मुख्यालय में अब भी निराशा का भाव, कांग्रेस को मंथन की जरूरत

Sailesh Chandra • LAST UPDATED : June 18, 2024, 2:04 pm IST

India News (इंडिया न्यूज), अजीत मेंदोला, नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव में 99 सीट जीतने के बाद नेता भले जश्न मना रहे हों,लेकिन कांग्रेस मुख्यालय में आज भी कमजोर होती पार्टी जैसा नजारा ही दिखता है। एक दम सन्नाटा। पार्टी पदाधिकारी गायब। अपने नेताओं को जश्न मनाता देख दूर दूर से आए कार्यकर्ताओ का पार्टी मुख्यालय में फैले सन्नाटे से निराशा का भाव लेकर लौटना कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता है। जानकार भी मानते हैं कांग्रेस को अभी जश्न नहीं गहन मंथन की जरूरत है। क्योंकि दूसरों के कंधों पर चढ़ जश्न मनाने से नुकसान कांग्रेस का ही है। सत्ता से दस साल बाहर रहने के बाद भी पार्टी का बीजेपी से सीधी लड़ाई वाले राज्यों में अपनी स्थिति को न सुधार पाना कमजोरी दर्शाता है। दशकों से जमे पदाधिकारी पार्टी मुख्यालय में केवल उसी दिन पहुंचते हैं जब पता चलता है कि राहुल गांधी या राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे आने वाले है।

एक दशक से पार्टी सत्ता में नहीं है लेकिन नेताओं के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया। दशकों से पार्टी मुख्यालय में जमे पदाधिकारी जानते हैं कि कार्यकर्ताओं को समय देने के बजाए राहुल के इर्दगिर्द चक्कर काटने में ही भलाई है, न कि पार्टी मुख्यालय में बैठने से। राहुल गांधी के पास इतना समय ही नहीं है कि वह मुख्यालय में पहुंच अपने कार्यकर्ताओं और कर्मचारियों से मिल सच को समझ सकें। यही वजह पार्टी हिंदी वाले राज्यों के साथ अब दक्षिण में भी कमजोर हुई है।

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बीजेपी में कम सीट आने को लेकर ऊपर से लेकर नीचे तक पोस्टमार्टम शुरू हो गया। संघ अलग पोस्टमार्टम कर रहा है तो पार्टी स्तर पर हर प्रदेश की रिपोर्ट तैयार हो रही है। सब चिंतित हैं कि आखिर कहां गलती हुई। लेकिन वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के नेता इसी बात से खुश हैं कि 99 सीट आ गई। उसी में मस्त हैं । पार्टी के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन के बयानों से ऐसे लगता है कि दोनों नेता कम सीट आने पर चिंतित होने के बजाए इस कोशिश में लगे हैं नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बनी गठबंधन की सरकार कैसे गिराई जाए।

कांग्रेस के सहयोगी दल भी ऐसे बयान दे रहे हैं किसी तरह उन्हें मौका मिल जाए। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि राहुल गांधी अभी भी संविधान को लेकर इस तरह बयानबाजी कर रहे हैं कि वे ही देश के पिछड़ों के नेता हैं उनकी वजह से आरक्षण बच गया। पीएम मोदी के संविधान को माथे से लगाने का मजाक बनाना भी समझ से परे माना जा रहा।

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राहुल की कोशिशों से ऐसा लगता है कि वह किसी भी तरह से सत्ता मिल जाए। राहुल गांधी अगर अपनी मां सोनिया गांधी की तरह केवल सत्ता के लिए राजनीति कर रहे हैं तो फिर बात अलग है। सोनिया गांधी की अगुवाई में दो बार गठबंधन की सरकार बनाई गई उससे सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस का हुआ। क्षेत्रीय पार्टियां ताकतवर हुई और कांग्रेस खत्म होने की कगार पर पहुंच गई थी। 2014 में करारी हार के बाद संगठन खत्म हो गया। दिल्ली और उसके आसपास ही हरियाणा,उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पार्टी का संगठन नाम मात्र का रह गया। राजस्थान और मध्यप्रदेश में संगठन गिनती के नेताओं के बीच संघर्ष कर रहा है। जहां पर कांग्रेस की बीजेपी के साथ सीधी लड़ाई है उन राज्यों में कांग्रेस ने कुल 14 सीट ही जीती हैं। ये राज्य हैं-राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़।

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इनमें भी राजस्थान में दो लोकल दलों से और हरियाणा में आप से गठबंधन कर। बाकी बचे सीधी लड़ाई वाले राज्य मध्य प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड में पार्टी का खाता ही नहीं खुला। पार्टी इसी में खुश है कि 84 में से 14 सीट आ गई। इस पर कोई मंथन नहीं हो रहा है कि आखिर मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल में एक भी सीट क्यों नहीं आई। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में छोटे दलों के साथ गठबंधन कर जैसे तैसे लाज बची। दोनों प्रदेशों की 120 में से कांग्रेस केवल गठबंधन के भरोसे 9 सीट ही जीत पाई। इनमें 6 उत्तर प्रदेश में 3 बिहार में। दक्षिण में केरल और तमिलनाडु को छोड़ दें तो सत्ता वाले कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस का प्रदर्शन विधानसभा के मुकाबले बहुत ही खराब रहा। इन दोनों राज्यों की 45 में सीटों में से कांग्रेस 17 ही जीत पाई। आंध्र प्रदेश में खाता नहीं खुला और उड़ीसा में एक ही सीट मिली। तमिलनाडु में द्रमुक का सहारा है। ये कांग्रेस की दक्षिण की स्थिति है।

जम्मू कश्मीर में भी शून्य। उत्तर पूर्वी राज्यों में कुल 6 सीट हिस्से में आई। गुजरात में एक। इस स्थिति को राहुल गांधी और नेता उपलब्धि मान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर रहे हैं तो चिंता की बात है। इस चुनाव के परिणाम कांग्रेस के लिए अच्छे नहीं माने जा सकते हैं। इनसे यह साबित हो गया कि कांग्रेस मोदी भर को हराने के लिए कैसे भी छोटे दलों के आगे आत्मसमर्पण कर केवल सत्ता चाहती है। दिल्ली,गु जरात और हरियाणा में आप से गठबंधन, राजस्थान में बाप और आरएलपी से गठबंधन उदाहरण हैं। वो तो शुक्र है कि आम आदमी पार्टी को इन राज्यों में सफलता नहीं मिली वरना कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनाव में बड़ी परेशानी खड़ी कर दे थी। अक्टूबर से एक बार फिर चुनाव का दौर शुरू होगा। हरियाणा में कांग्रेस भूपेंद्र हुड्डा के भरोसे सीधी लड़ाई में है महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों का सहारा है। ये चुनाव कांग्रेस के लिए खासे महत्वपूर्ण होंगे।

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