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आलोक मेहता, Presidential Election 2022: सचमुच राजनीतिक कमाल है। पंडित नेहरु , इंदिरा गाँधी से लेकर मनमोहन सिंह तक के प्रधान मंत्रित्व काल में कांग्रेस या सत्तारूढ़ गठबंधन के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर गंभीर विवाद और समस्याएं आती रहीं। नेहरुजी तो स्वयं पहले डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन सरदार पटेल सहित शीर्ष कांग्रेस नेताओं की राय मानकर उन्हें एक बार ही नहीं दो बार राष्ट्रपति बनवाना पड़ा। इंदिरा गाँधी ने तो कांग्रेस के ही तय उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के विरुद्ध अंतरात्मा की आवाज पर सांसदों का विरोध कर निर्दलीय उम्मीदवार वी वी गिरी को राष्ट्रपति बनवा दिया।
इस दृष्टि से वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति पद के लिए श्रीमती द्रोपदी मुर्मू का नाम आगे करके प्रतिपक्ष की बिछाई बिसात को बुरी तरह पलट दिया। फ़िलहाल घोर विरोधी उद्धव ठाकरे और शिव सेना के दोनों गुट, झारखंड मुक्ति मोर्चा सहित विभिन्न राज्यों के क्षेत्रीय दलों के नेता समर्पण करके द्रोपदीजी के पक्ष में आ गए हैं। यहाँ तक कि कथित चाणक्य बुजुर्ग शरद पवार की महा अघाड़ी के कुछ कांग्रेसी अंतरात्मा की आवाज पर विरोधी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की पराजय का आंकड़ा अधिकाधिक करने के संकेत दे रहे हैं।
राष्ट्रपति चुनाव की परंपरा का एक दिलचस्प पहलु यह है कि नीलम संजीव रेड्डी ही एकमात्र नेता थे, जो स्वयं राष्ट्रपति बनने के लिए हर संभव कोशिश करते रहे और एक बार इंदिरा गाँधी के कारण हारने के बाद 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने पर पुराने कांग्रेसियों, जनसंघ, सोशलिस्ट आदि का सहयोग लेकर सपना पूरा कर सके। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर राधाकृष्णन, डॉक्टर जाकिर हुसैन सहित किसी नेता ने स्वयं राष्ट्रपति बनने के लिए कोई पहल नहीं की।
बल्कि उनके बाद निर्वाचित नेताओं ने तो कभी कल्पना भी नहीं की कि वह देश के सर्वोच्च पद पर पहुँच जाएंगे। डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम, श्रीमती प्रतिभा पाटिल, रामनाथ कोविद और अब द्रोपदी मुर्मुजी के लिए कभी किसी ने अनुमान नहीं लगाया था कि वे राष्ट्रपति हो सकती हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कुछ चुनावों में दिग्गजों को कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ा । डॉक्टर जाकिर हुसैन का बहुत सम्मान था, उप राष्ट्रपति थे । इसके बाद इंदिरा गाँधी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया , जयप्रकाश नारायण जैसे वरिष्ठ नेता उनके पक्ष में आए । लेकिन उस समय प्रतिपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद से इस्तीफ़ा देने वाले के सुब्बा राव को बड़े जोर शोर से उम्मीदवार बनाया ।
लेकिन चुनाव के दौरान कुछ राज्यों के गैर कांग्रेसी विधायकों ने सुब्बा राव के बजाय डॉक्टर जाकिर हुसैन का समर्थन कर दिया । सुब्बा राव की तरह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एच आर खन्ना , चुनाव सुधारों के प्रणेता चर्चित टी एन सेशन , नेताजी सुभाष चंद्र बोस की सयोगी रही कैप्टन लक्ष्मी सहगल , वकील राम जेठमलानी जैसे गैर राजनैतिक लोग राष्ट्रपति पद के लिए निर्दलीय के रूप में खड़े हुए , लेकिन करारी पराजय का सामना करना पड़ा ।
इस बार प्रतिपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा अति महत्वाकांक्षी रहे हैं । उन्होंने सरकारी प्रशासनिक नौकरी के अलावा कई राजनीतिक दलों के साथ नाता जोड़ा । वी पी सिंह, चंद्रशेखर, राजीव गांधी, नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी से समय समय पर सम्बन्ध बनाए, सत्ता के पद पाए। फिर पार्टी अध्यक्ष, प्रधान मंत्री या राष्ट्रपति बन सकने के लिए जोड़ तोड़ की। मंत्री रहते हुए यू टी आई घोटाले सहित अनेक विवादों में भी फंसे। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने पर उनकी और सुब्रमण्यम स्वामी को कोई महत्वपूर्ण पद नहीं मिल सका।
तब सिन्हा भाजपा और मोदी के विरुद्ध प्रतिपक्ष से जोड़ तोड़ में लग गए और ममता बनर्जी का दामन पकड़कर तृणमूल के उपाध्यक्ष बन गए। ममता को भी पडोसी झारखण्ड – बिहार के साथ राष्ट्रीय स्तर के नेता की जरुरत रही। प्रतिपक्ष की एकता के नारे और क्षेत्रीय दलों के बल पर यशवंत सिन्हा को किसी तरह विजयी बनाने की कोशिश की गई। लेकिन मोदीजी ने द्रोपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर सारा खेल ही बदल दिया।
नया नाम होते हुए भी द्रोपदी मुर्मू अपने इलाके की समर्पित आदिवासी नेता, उड़ीसा की अनुभवी मंत्री, झारखण्ड की सफल राज्यपाल हैं। इसलिए उनके सामने यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी बेहद कमजोर हो गई। प्रस्तावक ममता बनर्जी तक को द्रौपदीजी का विरोध करना मुश्किल हो गया। इससे पहले भी प्रणव मुखर्जी के चुनाव के समय पहले ममता राजी नहीं थी, लेकिन बंगाल की प्रतिष्ठा का सवाल आने पर अंतिम क्षणों में उन्हें प्रणव दा को स्वीकारना पड़ा।
असल में नरेंद्र मोदी शुरु से दूरगामी राजनीति और राष्ट्रीय लक्ष्य को ध्यान में रखकर तैयारी करते रहे हैं और अपने इरादों को बहुत धैर्य के साथ गोपनीय रखते हैं। उनके कदमों का पूर्वानुमान बेहद कठिन रहता है । इसी तरह भाजपा को सहयोग देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेता और चुनिंदा निष्ठावान प्रचारक विभिन्न राज्यों, ग्रामीण वनवासी क्षेत्रों, पूर्वोत्तर प्रदेशों में लोगों के बीच सक्रिय सेवा अभियान में लगे रहते हैं। एक तरह से वे भाजपा की राजनीतिक सफलता के लिए जमीन, खाद, पानी, रोशनी का इंतजाम करने में चुपचाप लगे रहते हैं। द्रोपदी मुर्मू को आगे बढ़ाने के लिए भाजपा – संघ के लोग वर्षों से प्रयास करते रहे हैं।
हां, किस पद पर उनका उपयोग होगा यह तय नहीं किया गया होगा । मोदीजी स्वयं वर्षों से उनके कामकाज पर नजर रखकर प्रोत्साहित कर रहे थे। इस तरह गैर भाजपा शासित प्रदेशों उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र, केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में अपना विजय रथ ले जाने, नए समझौते करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की मजबूत छवि बनाने का उनका प्रयास बहुत दूर तक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हितों की पूर्ति कर सकेगा।
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