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Lok Sabha Election: लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम हैरान भी किया और सीख भी दे गए

India News (इंडिया न्यूज), अजीत मेंदोला, नई दिल्ली: आम चुनाव 2024 के परिणामों ने राजनीति पंडितों को हैरानी में डाल नई बहस को जन्म दे दिया। जैसे उत्तर प्रदेश में जातीय और आरक्षण की राजनीति चली तो बिहार और दूसरे राज्यों में क्यों नहीं?मध्यप्रदेश में भाजपा क्लीन स्वीप करती है तो वहीं पड़ोसी राज्य राजस्थान […]

BY: Sailesh Chandra • UPDATED :
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India News (इंडिया न्यूज), अजीत मेंदोला, नई दिल्ली: आम चुनाव 2024 के परिणामों ने राजनीति पंडितों को हैरानी में डाल नई बहस को जन्म दे दिया। जैसे उत्तर प्रदेश में जातीय और आरक्षण की राजनीति चली तो बिहार और दूसरे राज्यों में क्यों नहीं?मध्यप्रदेश में भाजपा क्लीन स्वीप करती है तो वहीं पड़ोसी राज्य राजस्थान में 11 सीटों का नुकसान होता है। उत्तर प्रदेश की वाराणसी संसदीय सीट के परिणाम ने पूरे देश को चौंका दिया। जिस वाराणसी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कायाकल्प कर उसको नया स्वरूप दिया उसी ने भाजपा को चिंता में डाल दिया। प्रधानमंत्री मोदी मात्र डेढ़ लाख मतों से जीत पाए। जबकि इस बार रिकार्ड जीत की उम्मीद की जा रही थी। जीतने वाली सूची में प्रधानमंत्री 116 वें नंबर पर हैं। चुनाव परिणाम ने सत्ताधारी दल को सीख भी दी कि छोटे छोटे मुद्दों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।

हैरानी की बात यह है कि क्या भाजपा के रणनीतिकार और भारत सरकार की खुफिया एजेंसी भांप नहीं पाई की उत्तर प्रदेश में क्या होने जा रहा है। जबकि अयोध्या के राम मंदिर में राम लला की मूर्ति स्थापित होने के बाद माना जा रहा था कि राम लहर है। आखिर राम लहर कमजोर क्यों हुई। इस पर भाजपा के रणनीतिकारों को शोध करना चाहिए। ऐसा लगता है कि 400 पार के नारे और मोदी की गारंटी ने राम लहर को भुला दिया।

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कार्यकर्ता उदासीन हो गए। पहले और दूसरे चरणों में आरक्षण राजनीति ने ज्यादा जोर नहीं पकड़ा था। लेकिन बाद में बड़ा मुद्दा बना। अयोध्या और उसके आसपास की सीट हों या दूसरी सीट ढाई महीने लंबे चले चुनाव प्रचार में राम मंदिर का मुद्दा शुरू से ही गायब था। न राज्य सरकार की समझ में आया और ना ही केंद्र के। जबकि चुनाव के मूड का शुरू से ही पता लगने लगता है। लेकिन बीजेपी में तो लगा ही नहीं रणनीति बदली जा रही है। इसके विपरीत सपा और कांग्रेस ने हर चरण में प्रत्याशी बदलने के साथ रणनीति भी बदली।

उत्तर प्रदेश की नगीना लोकसभा सीट के परिणाम ने दलित वोटरों को लेकर नई बहस छेड़ दी। दलित और मुस्लिम बाहुल्य इस सीट पर आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर प्राण ने डेढ़ लाख से ज्यादा मतों से जीत हासिल कर सभी दलों की नींद उड़ा दी। भाजपा का उम्मीदवार यहां पर दूसरे नंबर पर रहा। सपा तीसरे पर और बसपा की जमानत जब्त हो गई। इस सीट पर पिछले चुनाव में बसपा के गिरीश चंद्र जीते थे। चंद्रशेखर प्राण बीते कुछ साल से अपने को दलित नेता के रूप में प्रोजेक्ट कर रहे हैं।

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विधानसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी ने कोशिश की थी लेकिन सफलता नहीं मिली। राजस्थान में क्षेत्रीय पार्टी आरएलपी के साथ गठबंधन कर प्राण ने चुनाव लड़ा। कुछ सीटों पर अच्छी टक्कर भी दी। चंद्रशेखर प्राण को उम्मीद थी इंडी गठबंधन उनका साथ देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सपा ने मनोज कुमार को मैदान में उतारा था। अब चंद्रशेखर की इस जीत के बाद बीजेपी, सपा और बीएसपी सभी के लिए चुनौती बढ़ गई है। मायावती ने भी पहली बार 1989 में बिजनौर की एक मात्र सीट जीती थी। उसके बाद वह दलित नेत्री के रूप में स्थापित हुई। चंद्रशेखर प्राण ठीक उसी रास्ते पर हैं। जीत हासिल कर वह अकेले ही लोकसभा में दलितों के हित में बोलने का मौका नहीं छोड़ेंगे। प्राण ने कहा भी है कि वह संसद में दलित और शोषितों का मुद्दा उठाते रहेंगे।

यही एक बड़ा सवाल है कि दलितों ने नगीना में प्राण को वोट दिया तो बाकी जगह इंडी गठबंधन को। इसका मतलब यह हुआ कि दलित ने चतुराई से वोटिंग की है। बिहार में दलित इंडी गठबंधन के साथ कम ही गया। इसलिए एनडीए ने वहां ज्यादा सीट जीती। यह भी रिसर्च का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। इस लोकसभा चुनाव ने बंगाल को लेकर भी चौंकाया। उम्मीद भाजपा की थी। जीती टीएमसी। खबरें हैं कि टीएमसी ने चतुराई से चुनाव को बंगाली बनाम गुजराती कर माहौल को बदल दिया।

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लोकसभा चुनाव से यह बात भी साबित हुई कि हिंदी बेल्ट में अगड़ी जाति अभी पूरी तरह से भाजपा के साथ है। मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली के क्लीन स्वीप इसके उदाहरण हैं। लेकिन वहीं जाटों की नाराजगी ने भाजपा को बड़ा संदेश दिया है। राजस्थान, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, पंजाब में हार की एक बड़ी वजह जाटों की नाराजगी भी बताई जा रही है। राजस्थान में जाट बाहुल्य सीट चुरू, सीकर, बाड़मेर और झुनझुन में तो हार का सामना करना पड़ा

वहीं भरतपुर, दौसा और गंगानगर जैसी सीटों पर भी वोट नहीं मिला। हरियाणा की पांच सीट पर भी जाटों ने खिलाफ वोटिंग की। पश्चिम उत्तर प्रदेश की सहारनपुर, संभल कैराना, मुज्जफरनगर जैसी सीट जाटों की नाराजगी के चलते हाथ से निकल गई। पंजाब में खाता ही नहीं खुला। हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट किसान आंदोलन, खिलाड़ियों का धरना और अग्निवीर जैसी योजना से नाराज थे, इसलिए भाजपा के खिलाफ वोटिंग की। राजस्थान में जाट इसलिए नाराज थे कि उनके नेताओं की उपेक्षा की गई।

इस चुनाव ने भाजपा को साफ साफ संदेश दे दिया कि छोटे छोटे मुद्दे भी बाजी पलट देते हैं। कुश्ती संघ के बृजभूषण सिंह को पार्टी ने क्यों महत्व दिया समझ से परे है। इसी तरह किसान आंदोलन की तह तक न जाना भी हैरानी वाला फैसला था। इस बात का पता लगाने की कोशिश ही नहीं की गई कि आंदोलन क्यों हुआ। ये ऐसे मुद्दे है जिन्होंने भाजपा को अपने दम पर बहुमत से दूर कर दिया। इन छोटे छोटे मुदों की अनदेखी नहीं की होती तो परिणाम कुछ और होते।

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