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इंडिया न्यूज। West Bengal: पश्चिम बंगाल की विधानसभा ने पश्चिमी बंगाल यूनिवर्सिटी लाॅ (संशोधन) बिल 2022 पास कर दिया है। यह शिक्षा जगत के लिए एक पूरा समाचार है। यह बिल पश्चिमी बंगाल के सभी 31 राज्य सहायता प्राप्त विश्वविद्यालयों व उच्च शिक्षा के संस्थानों में गवर्नर को हटाकर मुख्यमंत्री को कुलपति (चांसलर) बनाता है।
पश्चिमी बंगाल विधानसभा देश की पहली विधानसभा है, जिसने यह बिल पास किया है। देश के सभी राज्यों में विश्वविद्यालयों के चांसलर का पद गवर्नर को ही दिया गया है। 1947 से भी पहले से चली आ रही इस परंपरा को भारत में सभी राज्यों ने स्वीकार किया है। व्यवहार में यह देखा गया है कि विश्वविद्यालयों के कुलपति अर्थात चांसलर के रूप में गवर्नर जो भी भूमिका अदा करता है या शक्तियों का इस्तेमाल करता है वह राज्य सरकार की सलाह तथा मर्जी के अनुरूप ही करता है।
पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को यह परंपरा रास नहीं आ रही थी। इसलिए उन्होंने यह बिल पास करवा कर स्वयं सभी यूनिवर्सिटी के चांसलर का पद हथियाने की कोशिश की है। लेकिन यह बिल यदि पास हो जाता है तो इससे शिक्षा जगत को लाभ कम और हानि अधिक होगी। इतना ही नहीं इससे एक गलत परंपरा स्थापित होगी। देखा देखी सभी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्य इस प्रकार के कानून पास करने लगेंगे, जिससे विश्वविद्यालयों की स्वयतत्ता तथा स्वतंत्रता पर बहुत बुरा असर पड़ेगा।
अनुमान है कि यह बिल कानून नहीं बनेगा क्योंकि गवर्नर के हस्ताक्षर होने के पश्चात ही बिल कानून बनता है। वर्तमान गवर्नर इस पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे। फिर हताश होकर ममता बनर्जी की सरकार अध्यादेश जारी करेगी लेकिन उस पर भी गवर्नर के हस्ताक्षर करवाने आवश्यक होते हैं।
पश्चिमी बंगाल की विधानसभा द्वारा पास किया गया यह बिल भारत में प्रचलित सहयोगी संघवाद की परंपरा के भी विरुद्ध है। पश्चिमी बंगाल में गवर्नर और मुख्यमंत्री के बीच में चल रहा शीत युद्ध व तनाव भारत की सफल संघात्मक व्यवस्था में एक काले धब्बे के समान है। प्रजातांत्रिक संघवाद में संघात्मक व्यवस्था में इस बात की संभावना सदा रहती है कि केंद्र में किसी और दल की सरकार हो और राज्यों में अन्य दलों या विरोधी दलों की सरकार हो।
यदि राज्यों में अन्य दलों या विरोधी दलों की सरकारें हैं तो उन्हें राज्यपाल के संवैधानिक पद का सदैव सम्मान करना चाहिए। यदि मुख्यमंत्री और राज्यपाल या दूसरी तरफ केंद्र तथा राज्य सरकारें आपस में लड़ती रहेंगी या एक दूसरे के प्रति वैमनस्य का रुख रखेंगी तो संघीय लोकतंत्र विफल हो जाएगा।
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यदि एक तरफ राज्य सरकारों को चाहे वे किसी भी दल की हों को राज्यपाल के पद का सम्मान करना चाहिए। दूसरी तरफ राज्यपाल को भी अपने पद की गरिमा बनाए रखनी चाहिए। राज्य की राजनीति में नोकझोंक नहीं करनी चाहिए। राज्य सरकार के कार्यों में व्यर्थ के अड़ंगे नहीं डालने चाहिए।
राज्यपाल को राज्य के मामलों में अत्याधिक सक्रिय प्रो-एक्टिव नहीं होना चाहिए और अपनी सीमाओं में ही रहना चाहिए। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिमी बंगाल के वर्तमान राज्यपाल जगदीप धनखड़ केंद्र में अपने आकाओं को खुश करने के लिए ममता दीदी के साथ नोकझोंक करते रहते हैं। उनका यह आपसी द्वंद्व ही इस बिल को पास करवाने की मुख्य वजह है।
यदि यह बिल कानून बन जाता है तो इसके बहुत दुष्परिणाम होंगे और जिन जिन राज्यों में गैर-बीजेपी सरकारें हैं वे इस तरह के कानून पास करके मुख्यमंत्री की शक्तियों को बढ़ाने का प्रयास करेंगे। राज्यपाल जो पहले ही शक्तिविहीन, नाम मात्र का संवैधानिक पद है उसकी शक्तियां और भी कम हो जाएंगी।
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