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इंडिया न्यूज, नई दिल्ली
हमारी पृथ्वी 6000 साल में जितनी ठंडी हुई थी, ग्लोबल वॉर्मिंग (Climate Change) की वजह से 150 साल में 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा। आने वाले समय में इसके और ज्यादा बढ़ने की आशंका है। ऊपर से धरती के दक्षिण ध्रुव के ऊपर ओजोन परत में हर साल बढ़ रहा छेद अंटार्कटिका से भी बड़े आकार का हो गया है। इसका भी ग्लोबल टेंपरेचर पर असर पड़ना तय है।
Un Climate Change Conference: आपको बता दें कि अगर ग्लोबल वॉर्मिंग (Air Pollution) का स्तर इतना नहीं होता तो ऐसे हालात कम से कम सवा लाख साल तक पैदा नहीं होते। इस प्रदूषण और क्लाइमेट बदलाव के लिए कौन जिम्मेदार है? इसके लिए सिर्फ पंजाब और हरियाणा के पराली जलाने वाले किसान या दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाली डीजल गाड़ियां जिम्मेदार नहीं हैं। इसके लिए अमेरिका जैसे विकसित देशों की महत्वाकांक्षा, जिसने आर्थिक लाभ के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल किया है।
China Co2 Emission: करीब 4500 ईसा पूर्व में पाषाण युग के अंत के करीब तापमान हर 1000 पर 0.1 डिग्री सेल्सियस के रेट से कम हो रहा था और 1300 ईसवीं में लिटिल आइस का समय शुरू हो गया। हालांकि 19वीं सदी के बीच में तापमान तेजी से बढ़ने लगा। जीवाश्म ईंधनों के जलने पर टनों ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होने लगा जो वायुमंडल में ही कैद हो गईं और तापमान एक डिग्री सेल्सियस के रेट से बढ़ने लगा। माना जाता हा कि जब आखिरी बार तापमान इतना बढ़ा था तब समुद्र स्तर आज की तुलना में 20 फीट ज्यादा ऊंचा था जो आज के शहरों को तरह जलमग्न करने के लिए काफी है।
Carbon Emission: दुनिया भर का तापमान पिछले 150 सालों में एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा। लेकिन इस सदी के अंत तक इसके 3 से 5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अनुमान है। इतना ही नहीं तेल रिसाव और प्लास्टिक कचरे की वजह से बढ़ रहा समुद्री प्रदूषण भी किसी से छिपा नहीं है। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट कहती है कि प्रदूषण बढ़ने और क्लाइमेट चेंज के कारण भारत में हर साल भीषण गर्मी से 83700 लोगों की जान जाती है। साथ ही अधिक ठंड के कारण मरने वालों का आंकड़ा 6.55 लाख है।
climate change policy: द लेसेंट प्लेनेटरी हेल्थ की रिसर्च के मुताबिक 2015 तक अमेरिका (United States) दुनिया में 40 फीसदी कार्बन उत्सर्जन व यूरोपियन यूनियन 29 फीसदी कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार था। वहीं, जी8 में शामिल 8 देश 85 फीसदी कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार थे। इन देशों की तुलना में भारत और चीन जैसे कई विकासशील देश अपनी सीमा में रहते हुए कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं। अमेजन और कैलिफोर्निया के स्कवॉया जंगल की आग ने तापमान को बढ़ाया है। यह दोनों जंगल चीन-भारत में नहीं बल्कि नॉर्थ पोल के देशों में हैं।
Impact of Climate Change: कार्बन उत्सर्जन सबसे अधिक कोयला के इस्तेमाल करने की वजह से होता है। ऐसे में साफ है कि कार्बन की मात्रा बढ़ने से ओजोन में छेद होने के लिए जिम्मेदार विकसित देश हैं। अब तक खूब कोयला इस्तेमाल करने वाले विकसित देश अब विकासशील देशों पर ऐसा नहीं करने का दवाब बना रहे हैं। इस बार भी ग्लासको क्लाइमेट चेंज सम्मिट (सीओपी 26) (Climate deal) के बाद इन देशों ने कहा कि भारत और चीन की वजह से ही कोयला के पूर्ण इस्तेमाल पर रोक नहीं लग सकी है। भारतीय मूल के ही कॉप 26 के अध्यक्ष और ब्रिटेन के मंत्री ने तो कोयला के यूज को बंद नहीं करने के लिए भारत और चीन से जवाब तक मांग लिया है। Paris Agreement
Low carbon development: पर्यावरण को कार्बन छोड़कर सबसे ज्यादा दूषित करने वाले विकसित देशों ने 2009 के कोपनहेगन समिट के दौरान विकाशील देशों को 2020 तक प्रति साल 10 हजार करोड़ डॉलर देने का वादा किया था। इस फंड का इस्तेमाल विकासशील देशों के कार्बन उत्सर्जन को कम करने में होना था। लेकिन विकसित देशों ने इसके लिए वादा करके भी पैसा नहीं दिया। एक रिपोर्ट में लिखा है कि क्लाइमेट फाइनेंस से मशहूर इस फंड से इस साल तक 7 हजार करोड़ डॉलर से अधिक खर्च होना था, लेकिन 4 हजार करोड़ डॉलर ही खर्च हो पाया, वो भी सही से नहीं। भारत को अब तक इस मद में पैसा न के बराबर मिला है।
world’s biggest carbon polluters: आपको बता दें कि भारत और चीन में इस्तेमाल होने वाले ज्यादातर प्रोडक्ट का इस्तेमाल पश्चिमी देशों (अमेरिका समेत विकसित देश) के लोग करते हैं। इन समानों के बनाने में विकासशील व गरीब देश कोयला को ऊर्जा के लिए इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देश) को जरूरत है कि वो अपना उपभोग (कंजम्पशन) कम करें। डेटा गवाह है कि विकसित देशों में पूरी दुनिया की केवल 24 फीसदी जनसंख्या निवास करती है, जबकि वहां चीजों का इस्तेमाल दुनिया के खपत का 50 से 90 फीसद है।
Most Polluting Countries: विकसित देशों में अनाज, दूध और मीट जैसे सामान्य प्रोडक्ट की खपत दुनिया में होने वाले कुल खपत का 48 फीसदी से 72 फीसदी के बीच है। इन देशों में फर्टिलाइजर के मामले में वैश्विक खपत का 60 फीसदी, पेपर में 81 फीसदी, कॉपर और एल्यूमिनियम में 86 फीसदी, आयरन और स्टील में 80फीसदी और गाड़ियों के मामले में 92 फीसदी है। साफ है कि मुट्ठी भर दुनिया के लोग चीजों का काफी ज्यादा खपत कर रहे हैं। इसका सीधा असर पर्यावरण पर हो रहा है, जिसे कम करने की जरूरत है।
greenhouse gases: भारत और चीन को प्रदूषण के लिए बदनाम करने वाले देशों ने दशकों तक कोयले का इस्तेमाल अपने देश की तरक्की के लिए किया। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश में नेचुरल गैस होने की वजह से भी कोयले का यूज कम करना संभव हुआ। 2012 तक यूके में बिजली उत्पादन के लिए कोयला का इस्तेमाल 41 फीसदी और नेचुरल गैस की खपत 25 फीसदी थी। इंग्लैण्ड ने कोयला आधारित ऊर्जा के उत्पादन को अब न के बराबर कर दिया है। भारत के पास भी ऊर्जा के लिए कई विकल्प हैं, लेकिन पूरी तरह से शिफ्ट करने में समय और रिसोर्स लगेंगे जिसकी तैयारी चल रही है।
अमेरिकी की मैगजीन मुताबिक, 20वीं सदी में भारत का लक्ष्य पश्चिमी देशों के खिलाफ लड़ाई लड़कर देश को आजाद कराने का था, लेकिन अब 21वीं सदी में भारत का लक्ष्य बदल गया है। अब भारत का लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन को कम (डिकार्बनाइजेशन) करने का है। उम्मीद जताई जा रही है कि भारत न केवल खुद कार्बन उत्सर्जन कम करेगा बल्कि दूसरे देशों को भी प्रेरणा दे सकता है।
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