परंपरा और उसकी जड़ें
65-वर्षीय गणपत खुराना, जो आठवीं बार हनुमान स्वरूप धारण कर रहे हैं, बताते हैं कि यह परंपरा ब्रिटिश शासनकाल के दौरान शुरू हुई थी। उस समय अंग्रेज़ों ने पानीपत में दशहरा मनाने पर पाबंदी लगाई थी, जिसके विरोध में यहां के लोगों ने हनुमान स्वरूप में अपनी भक्ति और साहस का प्रदर्शन किया। यह परंपरा विभाजन के बाद की पंजाबी आबादी में खासतौर पर जीवंत हो गई, और धीरे-धीरे दशहरा रावण पर राम की जीत से ज्यादा हनुमान की वीरता से जुड़ गया। आज पानीपत में सैकड़ों लोग इस परंपरा का हिस्सा बनते हैं, जिससे यह एक पवित्र उत्सव बन चुका है।
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हनुमान बनने की तैयारी
हनुमान स्वरूप बनने की प्रक्रिया दशहरे से 41 दिन पहले शुरू होती है। इस दौरान पुरुष और लड़के अपने घर-परिवार से दूर मंदिरों या किराए के अपार्टमेंट में रहते हैं, जहां वे उपवास, अनुष्ठान, और प्रार्थना में दिन बिताते हैं। वे ब्रह्मचारी जीवन जीते हैं, बिना नमक का भोजन करते हैं, और महिलाओं से दूर रहते हैं।
हनुमान बनने की इस साधना के लिए उन्हें कठिन अनुशासन का पालन करना पड़ता है। हर बार शौचालय जाने के बाद उन्हें स्नान करना पड़ता है और मोबाइल फोन का उपयोग वर्जित होता है। पूजा-अनुष्ठानों के दौरान उनका नाम ‘महाराज’ रखा जाता है और हर हनुमान की सेवा छह सेवक करते हैं। यह साधना उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से हनुमान स्वरूप धारण करने के योग्य बनाती है।
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सजावट और आशीर्वाद
दशहरे के दिन, इन हनुमान स्वरूपों को सिंदूर और तिल के तेल से सजाया जाता है। वे विशेष मुकुट पहनते हैं, जिन पर राम, सीता, और हनुमान की छवियां होती हैं। इन मुकुटों का आकार बहुत बड़ा होता है और इन्हें पहनने में भारीपन महसूस होता है, लेकिन यह देवता बनने की कीमत मानी जाती है। हनुमान बनने के बाद ये पुरुष और लड़के जलूस निकालते हैं, सड़कों पर नाचते हैं, और “जय श्री राम” के नारे लगाते हुए मंदिरों में भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।
पारिवारिक परंपरा और भक्तिमय जीवन
14-वर्षीय आयुष्मान चुघ के लिए हनुमान बनना पारिवारिक परंपरा है। उनके पिता और दादा भी दशहरे पर हनुमान स्वरूप धारण कर चुके हैं। यह उनके लिए गर्व का विषय है और वे भी इस परंपरा को जारी रखना चाहते हैं। आयुष्मान के लिए यह साधना और तपस्या का अनुभव उन्हें भविष्य में भी इस धार्मिक अनुष्ठान से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है।
समाज में हनुमान स्वरूप की भूमिका
हनुमान स्वरूप पानीपत के समाज का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। यह पुरुषों और उनके परिवारों के लिए गर्व और सम्मान का प्रतीक है। दशहरे के बाद, ये पुरुष और लड़के अपने नश्वर जीवन में वापस लौट आते हैं, लेकिन इस अनुष्ठान से उन्हें एक विशेष आध्यात्मिक शक्ति मिलती है, जिसे वे अपने जीवन में संजोए रखते हैं।
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त्याग और ईश्वर के प्रति समर्पण
हनुमान बनने की यह परंपरा सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि त्याग, समर्पण, और भक्ति का प्रतीक है। यह उन लोगों के जीवन में एक विशेष अध्यात्मिक परिवर्तन लाता है, जो हनुमान स्वरूप धारण करने के इस कठिन मार्ग को अपनाते हैं। हनुमान के प्रति यह भक्ति दशहरे के दौरान सिर्फ एक दिन के लिए नहीं होती, बल्कि यह उनकी पूरी साधना और जीवनशैली का हिस्सा बन जाती है।
पानीपत का दशहरा आज भी हनुमान की वीरता और भक्ति का जीवंत उदाहरण है, जो हमें हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ों से जोड़ता है।
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